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७१ : अहिंसा की व्यापकता
सव्वे पाणा सव्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा ण उद्धावेयव्वा। यह आगमों की वाणी है। इसका अर्थ है-किसी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व को मारना नहीं चाहिए, उस पर शासन नहीं करना चाहिए, उसे दास नहीं बनाना चाहिए, उसे परितापित नहीं करना चाहिए, उसका प्राणवियोजन नहीं करना चाहिए। यदि हम एक शब्द में कहना चाहें तो इसे 'अहिंसा' कह सकते हैं। यह अहिंसा धर्म ध्रुव, नित्य, शाश्वत, सनातन, सत्य, शुद्ध, अजरामर और व्यापक है। इस तथ्य का सत्यापन हम इस बात से कर सकते हैं कि सभी तीर्थंकरों, वीतरागियों, ऋषि-महर्षियों ने इस अहिंसा तत्त्व की महत्ता बखाणी है। यह एक त्रैकालिक सचाई है कि संसार के सभी प्राणी सुखेच्छु हैं। दुःख कोई नहीं चाहता। ऐसी स्थिति में औरों का सुख लूटकर या उसमें बाधक बनकर कोई भी प्राणी स्वयं सुखी होने की कल्पना कैसे कर सकता है? तात्पर्य यह है कि अच्छा
और उन्नत जीवन जीने की कामना करनेवाले को सर्वप्रथम हिंसा से विरत होना होगा, अहिंसा को जीवन का आधार बनाना होगा। गहराई से देखा जाए तो अहिंसा मूल धर्म है। सत्य आदि दूसरे-दूसरे तत्त्व इसके ही अंग-प्रत्यंग हैं। सत्य बोलने के पीछे अहिंसा की ही भावना होती है, क्योंकि असत्य बोलना हिंसा का ही एक प्रकार है।
ब्रह्मचर्य की साधना भी अहिंसा की ही साधना है। अब्रह्मचर्य हिंसा है, क्योंकि एक बार मैथुन सेवन करने से लाखों सूक्ष्म जीवों की हत्या होती है। इसके अतिरिक्त उससे व्यक्ति की आत्मा का भी पतन होता है। वह भी एक प्रकार की हिंसा है । यही कारण है जितनी भी विशिष्ट आत्माएं हुई हैं, उन्होंने ब्रह्मचर्य की साधना की है।
अपरिग्रह भी अहिंसा ही है। परिग्रह हिंसा की सूचना है। कहीं टीला तभी बनता है, जब कहीं खड्ढा खोदा जाता है। एक स्थान पर .१६८ -
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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