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________________ दृष्टि बदलें : सृष्टि बदलेगी 59 दिया है कि सोना भी है और जागना भी है। खाना भी है और न खाना भी है। वैसे ही पदार्थ के प्रति भी हमारा एक संतुलन बने। यदि कोई व्यक्ति आकर्षण और आकर्षण में ही रहता है तो वह विकर्षण सीखे। जो व्यक्ति इन्द्रियों को लुभाने वाली चीजों को देखता है तो न देखने का भी अभ्यास करे। मन में चंचलता है तो एकाग्रता का भी अभ्यास करे। यह सुंतलन यदि स्थापित करे तो जीवन की नई दिशा हो सकती है। बस, इसी की अपेक्षा है। __ प्रेक्षाध्यान का अर्थ आपने समझा है तो बहुत अच्छी बात है और न समझा है तो फिर ठीक से समझ लें कि प्रेक्षाध्यान कोई संन्यास का मार्ग नहीं है। प्रेक्षाध्यान आज ही कोई वीतराग बन जाने की शक्ति या उपलब्धि नहीं है, किन्तु एक संतुलन की दिशा में प्रस्थान है। हम इस जीवन में संतुलन बना सकें। पदार्थ का एकाधिपत्य है, एकछत्र साम्राज्य है, उससे हटकर हम सोचें, यह है संतुलन। जो पदार्थ जगत् का और इन्द्रियों का एकाधिपत्य और आकर्षण है उसकी सीमा से हटकर दूसरे तत्त्व के प्रति भी आकर्षण पैदा करें यह है संतुलन। ___ यह संतुलन पुद्गल जगत्, आत्म जगत्-दोनों के बीच एक सेतु का काम करता है। हम कोरे आत्मजगत् में चले जाएं तो खाने की समस्या आ जाएगी। कौन खेती करेगा? कौन पकाएगा और कौन खाएगा? सभी ध्यान में बैठ जाएं तो बड़ी समस्या पैदा हो जाएगी। यदि कोई कोरे पुद्गल जगत् में जाए तो भी समस्या पैदा होगी। फिर इतनी छीना-झपटी, लड़ाई, संघर्ष होगा कि आदमी को चैन नहीं मिलेगा। इसलिए एक संतुलन स्थापित करना आवश्यक है। यदि पचास प्रतिशत जीवन पदार्थ के आकर्षण में चलता है तो पचास प्रतिशत पदार्थ के विकर्षण में चले। बस, इसी का नाम है संतुलन, इसी का नाम है दृष्टिकोण का बदलना और इसी का नाम है प्रेक्षाध्यान। प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने वाले साधक यह अवश्य सोचें कि एकाग्रता कितनी सधी, कितना लंबा हुआ, स्थिरता का अभ्यास कितना हुआ, कायसिद्धि, मौनसिद्ध, मानसिक सिद्धि कितनी मिली? यदि हम एक बार इन प्रश्नों को गौण भी कर देते हैं तो कोई बात नहीं है। हम अपने आप से इस बात का उत्तर मांगें कि जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदला या नहीं? यदि दृष्टिकोण बदला है तो सारी सृष्टि बदल जाएगी और वे सारी चीजें प्राप्त होती रहेंगी, जिनकी कामना हम साधना में करते हैं। मंगलभावना है कि सबकी दृष्टि बदले, फिर सृष्टि बदले। कल्याणमस्तु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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