SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 48 सोया मन जग जाए हाइपोथेलेमस को उत्तेजित करता है। यह हमारा भावधारा का मुख्य केन्द्र है। यह हमारा हृदय है। हृदय की पवित्रता मस्तिष्क में होती है। हमारा यह हृदय जीवन यात्रा संवाहक है। भावना का केन्द्र जो हृदय है, वह फुप्फुस के पास नहीं है। वह हमारे मस्तिष्क में है। यह हृदय ब्रेन का एक भाग है। जब यह हृदय जागृत होता है, सक्रिय होता है तब अचेतन का शुक्ल-पक्ष उजागर होता है, जीवन की कल्पना और धारणा रूपान्तरित हो जाती है। जितने महापुरुष, उदारचेता और विशाल हृदय वाले व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने सचाइयों का साक्षात्कार किया है, ये वे ही लोग हुए हैं जिनके अचेतन मन का शुक्लपक्ष वाला भाग जाग गया। __ इच्छा आकाश के समान अनन्त है'—यह मैं भी जानता हूं और आप भी जानते हैं। सब जानते हैं कि इच्छा पूर्ण नहीं होती, अपूर्ण बनी की बनी रहती है। पर सचाई का साक्षात्कार करने वाले विरल व्यक्ति ही मिलेंगे। साक्षात्कार वही व्यक्ति कर पाता है जिसका शुक्लपक्ष जाग गया है। कपिल दो मासे सोने के लिए राजा के पास गया। राजा ने कहा-मांगो। अब इच्छा को खेलने के लिए अनन्त आकाश मिल गया। इच्छा बढ़ती गई और पूरे राज्य को पा लेने और राजा को रंक बनाने की बात सोचकर ही शांत हुई। मोड़ आया। सचाई का भान हुआ। शुक्लपक्ष जाग गया। राजा ने कहा-मांगो। कपिल बोला—क्या मांगू? कुछ है ही नहीं इस संसार में। अब मैं जा रहा हूं, उस देश में जहां मांग नहीं है, चाह नहीं है। कपिल संन्यासी बन गया। सचाई का साक्षात्कार होते ही मांग पूरी हो जाती है, चाह समाप्त हो जाती है। जब तक सचाई का अवबोध नहीं होता तब तक मांग कभी पूरी होती ही नहीं, चाह मिटती ही नहीं। सिद्धपुरुष ने अपने भक्त से कहा प्रसन्न हूं। कुछ मांगो। भक्त बोलाकुछ नहीं चाहिए। सिद्धपुरुष ने देखा, यह कैसा भक्त ! अमूल्य क्षण को खो रहा है। मांगने के लिए आग्रह किया। भक्त बोला—यदि आप देना ही चाहते हैं तो यह वरदान दें कि मेरे मन में चाह उत्पन्न ही न हो, मांग रहे ही नहीं।। ___ यह तब संभव है जब सत्य का साक्षात्कार हो जाता है। अन्यथा लोग मांग को पूरी करने के चक्कर में कितने देवी-देवताओं की मनौतियां मनाते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं। वे कहां-कहां नहीं भटकते। फिर भी एक के बाद दूसरी मांग बनी की बनी रहती है। इच्छा पर अंकुश नहीं रहता। इच्छा असीम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy