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________________ 46 सोया मन जग जाए परमार्थ की भावना बढ़े? पुरुषोत्तमदास टंडन नेशनल बैंक के प्रान्तीय मैनेजर थे। जब लाला लाजपतराय का देहावसान हो गया, तब लोकसेवा संस्थान' के लिए ऐसे व्यक्ति की जरूरत हुई जो कम वेतन में काम कर सके। टंडनजी को ज्ञात हुआ। वे बैंक की नौकरी छोड़, इस काम में लग गए। उन्होंने बड़ी आय को ठोकर मार दी। गांधी ने पूछा- आय कम हो गई। क्या जरूरतें पूरी हो जाती हैं? टंडनजी ने कहा—इच्छायें कम हो गईं। जरूरतें भी कम कर दीं। सब ठीक चल जाता इतिहास में ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिला, जिसकी सारी इच्छाएं पूरी हुई हों। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिलेगा जिसकी जरूरतें पूरी न होती हों। ये दोनों सचाइयां हैं। बेचारे शरीर और मन को इच्छा का कितना भार ढोना पड़ता है, उसे सचाई का साक्षात्कार ही नहीं होता। चीन का सम्राट क्फ्यूशियस के पास आकर बोला मैं महान् आत्मा का साक्षात्कार करना चाहता हूं। कन्फ्यूशियस बोले सम्राट् ! तुम्हारी इतनी पूजा होती है। अपार वैभव है तुम्हारे पास । तुमसे महान् और कौन होगा? तुम स्वयं को देख लो, हो जाएगा महान् आत्मा से साक्षात्कार। सम्राट ने कहा—'मुझे संतोष नहीं हुआ। यदि यही होता तो मैं आपके पास आता ही क्यों? कृपा करें। महान् आत्मा का साक्षात् कराएं।' कन्फ्यूशियस—'अच्छा, मुझे देख लो। साक्षात्कार कर लो।' सम्राट्—'इसमें भी मुझे संतोष नहीं है। आपके पास अपार वैभव है। आपको लौकिक वैभव छूटा है, पर आत्मिक संपदा बढ़ी है। हजारों-लाखों लोग आपके पीछे घूमते हैं। आपका ठाटबाट सम्राट के ठाटबाट से कम नहीं है।' - संत कन्फ्यूशियस ने सुना। वे सम्राट को लेकर एक झोंपड़ी के पास आए। भीतर एक बुढ़िया बैठी थी। कन्फ्यूशियस ने पूछा-मां! तुम आज भी वृक्ष लगाने का श्रम कर रही हो। क्यों? अब तो मृत्यु निकट है, फिर क्या तुम इन वृक्षों के फल खा पाओगी, जो इतना श्रम कर रही हो? बुढ़िया बोली—'इतनी बात भी नहीं जानते! मैं मर जाऊंगी, पर समूची दुनिया तो नहीं मरेगी। वह तो जीवित रहेगी। मैं अपने लिए ही नहीं सोचती। मैं सोचती हूं कि भावी पीढी का कल्याण हो।' सम्राट ने मन ही मन सोचा, वह महान् आत्मा है जो अपनी इच्छा से संचालित नहीं होता, जो अपनी इच्छा पर नियंत्रण रखता है, हित की बात को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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