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________________ २७. अनावृत चेतना का विकास चैतन्य विकास की पांचवीं भूमिका है—अनावृत चेतना। यह अंतिम सोपान है। चैतन्य विकास का यह अन्तिम बिन्दु है। हमारा चैतन्य मस्तिष्क-परतंत्र है। मस्तिष्क में इतने खंड-प्रखंड हैं कि कई खंड जागते हैं तो ज्ञान होता है और कई खंड सोए रहते हैं तो ज्ञान अवरुद्ध हो जाता है। यह खंड-चेतना मस्तिष्क से बंध पी हुई खंड चेतना है। इसीलिए आत्मा और चैतन्य की समानता होते हुए भी आदमी करोड़ों-करोड़ों रूपों में बंटा हुआ है। किसी में भी ज्ञान समान नहीं है। किसी में भी ज्ञानगत विशेषता समान नहीं है। एक व्यक्ति कुशल व्यापारी है, पर जहां विद्या का प्रश्न है वहां उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता है। एक व्यक्ति अत्यन्त बुद्धिमान् और विद्वान् है, साहित्य का मर्मज्ञ है, पर व्यावसायिक बुद्धि से शून्य है। यदि उसे दुकान पर बिठा दिया जाए तो दूसरे ही दिन दिवाला निकल जाए। इस प्रकार ज्ञानगत इतने विभाजन हो गए कि कहीं कोई सामंजस्य ही नहीं है। अलग-अलग विशेषताएं हैं। कोई शिल्पकार है। कोई टेक्नीशियन है। कोई लेखक है। कोई वक्ता है। हजारों-हजारों प्रकार ज्ञानधारा के बन गए। यह इसलिए सारा विभाजन है कि चेतना आवृत है, बंधी हुई है। जिसका जो आवरण हटा, वह व्यक्ति उसी में निपुण हो गया। वह खंड जागृत हो गया और शेष सारे बंधे के बंधे रह गए, मुक्त नहीं हुए। मस्तिष्क के ये दो खंड हैं। एक है सुप्त और दूसरा है जागृत । न्यूरोलाजी के अनुसार मस्तिष्क के बहुत थोड़े भाग सक्रिय या जागृत रहते हैं। प्रतिशत के आधार पर, दस प्रतिशत भाग जागृत रहता है और नब्बे प्रतिशत भाग सोया रहता है। आदमी इसीलिए खंड-चेतना का जीवन जीता है, इसीलिए उसका व्यक्तित्व अखंड नही बनता। अखंड व्यक्तित्व की बात बार-बार दोहरायी जाती है, पर खंड-चेतना के साथ जीने वाले व्यक्ति का अखंड व्यक्तित्व कैसे होगा? असंभव है। किसी में चरित्र का खंड विकसित हो गया तो वह बहुत चरित्रवान् बन गया, किन्तु ज्ञान का खंड विकसित नहीं है तो वह ज्ञान की दृष्टि से जीरो है। जिसके ज्ञान का खंड विकसित हो गया, किन्तु चरित्र का खंड सुप्त है तो वह चरित्र की दृष्टि से कुछ भी नहीं है। इसकी चतुर्भगी इस प्रकार बन सकती है १. कुछ लोग ज्ञानवान् हैं, पर चरित्रवान् नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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