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________________ क्या दु:ख को कम किया जा सकता है? 15 सांझ की बेला। पंडितजी के यहां गाएं पहुंची नहीं। दौड़े-दौड़े आए चरवाहे के घर और पूछा आज गाएं नहीं आईं? उसने कहा—पंडितजी! कौन-सी गाएं? भूल गए आप इस सूत्र को कि 'सर्वं ब्रह्ममयं जगत्' । सारा ब्रह्ममय है तो कौन गाएं देने वाला और कौन गाएं लेने वाला। चले जाइए आप अपने घर। ___पंडितजी बोले—'वह तो दार्शनिक चर्चा थी। यह लो पैसे।' चरवाहे ने पैसे लिए और गाएं सौंप दीं। __ दूसरा व्यक्ति भी चरवाहे के घर पहुंचा और उपालंभ के स्वर में बोलाअभी तक गाएं नहीं आईं ? चरवाहा बोला कौन-सी गाएं? वे तो कभी की मर चुकी। देने वाला भी मर गया और उनको सम्भालने वाला भी मर गया। जाओ अपने घर और 'सर्वं क्षणिकं' को रटते रहो। वह सकपका गया। स्वयं का तर्कजाल स्वयं को फंसा गया। वह बोलाक्यों दार्शनिक चर्चा कर रहे हो? यह लो पैसा. गायें दो। यह है मानसिक खेल। दर्शन को भी मानसिक खेल बना डाला गया। जब तक यह मानसिक खेल और दर्शन की क्रीड़ाएं चलती रहेंगी तब तक न धर्म धर्म होगा, न दर्शन दर्शन होगा और न सत्य सत्य होगा। हमें इससे परे जाना होगा सत्य के साक्षात्कार के लिए, अर्थात् मन की भूमिका को पार करना होगा। प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने वाले इस सचाई का अनुभव करें कि उन्हें मनोराज्य का नागरिक नहीं रहना है। नागरिकता को बदलना होगा। उन्हें अमन राज्य की नागरिकता स्वीकार करनी होगी। वहां मन नहीं होता, कोरी चेतना रहती है। इस स्थिति में गए बिना दु:ख कम नहीं हो सकता। अमन की स्थिति ही दुःख को कम करने की स्थिति है। हम अभ्यास करें। पूरे दिन-रात तक हम मन के साम्राज्य में रहते हैं। सोते हुए भी हम मन का खेल खेलते हैं। चौबीस घण्टों में हम कम से कम बीस मिनट, आधा घण्टा तो ऐसा अभ्यास करें कि मन की स्थिति न रहे, अमन की स्थिति उत्पन्न हो जाए। ऐसा करने पर नया अनुभव होगा, नया जीवन प्रारम्भ होगा। पुराना जीवन यानी मानसिक क्रीड़ाओं का जीवन । नया जीवन यानी मनोतीत जीवन, अमन का जीवन, केवल चेतना की भूमिका पर बिताया जाने वाला जीवन। हम इसका अभ्यास करें और चित्त के साथ जीना सीखें, चेतना के साथ जीना सीखें। इस अभ्यास के लिए आलम्बन लेना होगा। आलम्बन सर्वथा व्यर्थ नहीं होता। बच्चा मां की अंगुली के सहारे चलता है। बड़ा होने पर वह अंगुली का सहारा छोड़कर स्वतन्त्र रूप से चलने लगता है। नदी को नौका के द्वारा ही पार किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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