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क्या दुःख को कम किया जा सकता है? की अवस्था है। ध्यान के द्वारा अमनस्क स्थिति का अनुभव कर सकते हैं। जहां अमनस्कता आई, मन समाप्त हो जाता है। वहां केवल चित्त काम करता है। मन
और चित्त दो हैं, एक नहीं हैं। फ्रायड ने माइंड के आधार पर सारा चिंतन दिया। उसी को मूल्य दिया। यूंग ने दो शब्द दिए माइंड और साइकिक । एक है मन और दूसरा है चित्त। मन के द्वारा जीवन और कार्य-कलापों की पूरी व्याख्या नहीं की जा सकती। मन एक सीमित तत्त्व है। चित्त व्यापाक है। मन और चित्त के आधार पर समूचे आचार और व्यवहार की व्याख्या की जा सकती है। मन समाप्त हो जाता है, पर चित्त चेतना समाप्त नहीं होती। चेतना और अधिक प्रज्वलित होती है। जब मन काम करता है तब चित्त कुछ दब जाता है। जब मन शांत होता है तब चित्त अधिक सक्रिय बन जाता है। अमनस्क अवस्था में मन शात होता है, किन्तु चित्त अधिक प्रज्वलनशील और सक्रिय बन जाता है। चित्त को सक्रिय बनाने का माध्यम है ध्यान। इस अवस्था में दु:ख का भार समाप्त हो जाता है। वहां न कोई घटना का दुःख, न स्मृति का और कल्पना का दुःख और न चिन्तन का दुःख। सारे दुःख समाप्त हो जाते हैं। मन समाप्त तो दुःख भी समाप्त। मन समाप्त तो विचार समाप्त। विचार समाप्त तो दुःख समाप्त। मन सक्रिय बना, चंचलता बढ़ी और दु:खों का भार बढ़ गया।
महर्षि पतंजलि ने विक्षेप का पहला परिणाम बतलाया है दु:ख। दुःख, दौर्मनस्य ये चंचलता के परिणाम हैं। जितनी चंचलता उतना दु:ख। जितना विक्षेप उतना दु:ख। आदमी दु:ख नहीं चाहता, पर उसे ठीक से समझ नहीं पाता कि दुःख क्यों हो रहा है? सामान्यत: यह माना जाता है कि प्रतिकूलता में दु:ख आता है। दार्शनिकों ने भी यही परिभाषा दी—'प्रतिकूल-संवेदनीयं दु:खम्'प्रतिकूल संवेदन करना दु:ख है। यह ठीक है, पर कितना दु:ख होगा, इसका चिन्तन नहीं किया गया। एक दु:ख एक तोला भर का हो सकता है और एक दु:ख पचास किलो जितना भारी हो सकता है। प्रतिकूलता हो या न हो, जितनी चंचलता उतना दुःख-भार। यह बात स्पष्ट समझनी चाहिए। .
श्वास प्रेक्षा हम करते हैं। इसमें जो मर्म की बात है वह यह है कि श्वास के भीतर अश्वास को देखना। श्वास को देखते-देखते उसके भीतर अश्वास का अनुभव करना। हम श्वास लेते हैं। श्वास भीतर जाता है। श्वास का रेचन करते हैं, श्वास बाहर निकलता है। श्वास और नि:श्वास इन दोनों के बीच जो अश्वास का क्षण है, उसे पकड़ना है। श्वास लेना मानसिक क्रिया है। मानसिक क्रिया करते-करते अमन का अभ्यास करना है। अमन तक पहुंचना, अश्वास को पड़कना, एक ही है। अश्वास यदि पकड़ में नहीं आता है तो वह
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