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________________ समस्या और दुःख एक नहीं दो हैं 129 अध्यात्म का अर्थ है अतीन्द्रिय चेतना का विकास यानि इन्द्रिय-चेतना से ऊपर की चेतना का विकास। ऐसी चेतना का विकास जहां इन्द्रिय के संवेदन नीचे रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में न आदतें दु:ख की हेतु बनती हैं और न असातवेदनीय कर्म का विपाक व्यक्ति को दुःखी बना पाता है। वह दु:ख की अम्बार खड़ा कर सकता है पर व्यक्ति को दुःखी नहीं बना पाता क्योंकि संवेदना की चेतना से ऊपर उठकर वह जी रहा है। ___ यह समझने में हर व्यक्ति को कठिनाई होती है कि जटिल समस्या में व्यक्ति दु:खी न हो, यह कैसे संभव हो सकता है? यह केवल कल्पना है या इसमें कुछ तथ्य भी है? सबका यह प्रश्न है। मैं जो यह कह रहा हूं कि समस्या अलग बात है और दु:ख अलग बात है, इसमें सचाई है। समस्या हर कोई पैदा कर सकता है, पर कोई किसी को दु:खी नहीं बना सकता। दु:खी वह बनता है जो समस्या को स्वीकार कर लेता है। जो समस्या को नकार देता है, वह कभी दुःखी नहीं होता। समस्या को वह स्वीकारता है जो संवेदना का जीवन जीता है। जो ज्ञान चेतना के स्तर पर जीता है वह समस्या को स्वीकार नहीं करता। प्रश्न होता है क्या लौकिक स्तर पर ऐसा संभव है? संभव क्यों नहीं? जिस व्यक्ति ने उस आदर्श का चुनाव कर उसके प्रति सर्वात्मना समर्पण किया है, वह व्यक्ति इस भूमिका पर पहुंच सकता है। हम कुछेक बड़े लोगों की दुहाई इसलिए देते हैं कि केवल हम उन्हीं को जानते हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्होंने ज्ञान चेतना का जीवन जीया है। जो व्यक्ति अपने आदर्श का चुनाव नहीं करता, उसके प्रति समर्पित नहीं होता, वह कभी सफल जीवन नहीं जी सकता। वह भटक जाता है। आदर्श क्या हो, यह भी अहंप्रश्न है। हमारा आदर्श होना चाहिए—ज्ञान, आनन्द और शक्ति की त्रिवेणी। 'अर्हत्' इसका प्रतीक है। वह ज्ञानमय है, आनन्दमय है और शक्तिमय है। यह आदर्श सम्प्रदायातीत आदर्श है। यह त्रिवेणी का प्रतीक है। जिसमें इस त्रिवेणी का प्रवाह प्रवहमान होता है वह 'अर्हत्' है। यह हमारा आदर्श है। जब हम इसके प्रति सर्वात्मना समर्पित हो जाएंगे तब हम उस भूमिका पर पहुंच जाएंगे जहां हमें यह स्पष्ट दीखने लगेगा कि यह रहा संवेदना का जगत् और यह रहा ज्ञान का जगत्। यह है दु:ख का जगत् और यह है सुख का जगत् । सारा अवबोध स्पष्ट हो जाएगा। ___ व्यक्ति का यह संकल्प हो मैं उस आदर्श के प्रति समर्पित होता हूं जहां न प्रिय-अप्रिय संवेदन है, जहां न दुर्बलता है, न हीनभावना है पर है केवल सत्य का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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