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________________ क्या दु:ख को कम किया जा सकता है? वरदान है तो वही बहुत बड़ा अभिशाप भी है। यह सच है कि वरदान और अभिशाप दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। यूनान की एक कथा है। माइदास ने देवता से वर मांगा कि मैं जिसे भी छूऊं, वह सोने का बन जाए। वरदान मिल गया। पहले क्षण वह बहुत प्रसन्न हुआ। पर, ज्यों ही उसने पानी और रोटी को छुआ, वे सोने के बन गए। अब वह न पानी पी सका और न रोटी खा सका। बेटी आई। उसे छुआ। वह भी सोने की हो गई, जड़ हो गई। यह वरदान अभिशाप बन गया। __ मन का विकास अभिशाप भी है और वरदान भी है। दोनों को पृथक नहीं किया जा सकता। प्रश्न है, क्या हम अभिशाप से बच सकते हैं? वर्तमान के मानसिक दुःख को देखकर कभी-कभी सोचा जा सकता है कि कितना अच्छा होता, मनुष्य मन:शून्य होता। मानसिक विकास इतना नहीं हुआ होता। पर आदमी पीछे लौटना नहीं चाहता। वह सब मन की अविकसित व्यवस्था में जाना नहीं चाहता। तो क्या मानसिक विकास के साथ-साथ होने वाले दुःख को कम किया जा सकता है? इस समस्या को सुलझाने के लिए एक उपाय खोजा गया। वह है ध्यान। मानसिक विकास बना रहे, वह वरदान बन कर बना रहे। यह तभी संभव है जब मनुष्य ध्यान की स्थिति में चला जाए। ऐसी स्थिति में वह दुःख का भार नहीं ढोएगा। दुःख को कम करना है तो अमनस्क की स्थिति में जाना होगा। यह ध्यान से ही संभव है। तीसरे प्रकार के प्राणी हैं अमनस्क। निर्विचार या निर्विकल्प। ये वे प्राणी हैं जिन्होंने मन को समाप्त कर डाला। मानसिक विकास की अगली भूमिका है अमनस्क योग की भूमिका। यहां मन समाप्त हो जाता है। विकास आगे बढ़ जाता है। एक छलांग होती है अमनस्क योग की। आदमी वहां पहुंच जाता है जहां कोई विचार नहीं, कल्पना नहीं, केवल प्रकाश और केवल चैतन्य। कोई दुःख नहीं, कोई कष्ट नहीं, केवल आनन्द की अनुभूति। इस भूमिका को भारतीय दार्शनिकों ने विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त किया है। किसी ने इसे सत्, चित् और आनन्द की भूमिका माना है। इस कोटि के प्राणी बहुत कम होते हैं। वे ही होते हैं जिन्हें सत्य की झलक मिल गई है, सत्य का साक्षात्कार हो गया है। यह बोध हो जाता है कि सुख की वास्तविक स्थिति अमनस्कता में है। ___ समनस्क स्थिति में सुख और दुःख को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। यह युगल रहेगा। कभी सुख होगा तो कभी दुःख। दिन और रात, अन्धकार और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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