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१५. उपसंपदा : जीवन का समग्र दर्शन
प्रेक्षाध्यान के प्रारम्भ में उपसंपदा स्वीकार करनी होती है। यह समग्र जीवन-दर्शन है। ध्यान और जीवन को कैसे एकरस किया जाए, कैसे समग्रता से जीवन जीया जाए, इसका पूरा दर्शन उपसंपदा में प्राप्त है। उपसंपदा के चार सूत्र हैं
(१) अब्भुडिओमी आराहणाए- मैं प्रेक्षाध्यान की साधना के लिए उपस्थित हुआ हूं।
(२) मग्गं उवसंपज्जामि- मैं अध्यात्म साधना का मार्ग स्वीकार करता हूं।
(३) सम्मत्तं उवसंपज्जामि- मैं अन्तर्दर्शन की उपसंपदा स्वीकार करता हूं।
(४) संजमं उवसंपज्जामि- मैं आध्यात्मिक अनुभव की उपसंपदा स्वीकार करता हूं।
ये उपसंपदा के या ध्यान की मानसिक तैयारी के चार सूत्र हैं। पहली उपसंपदा से व्यक्ति अपने संकल्प को दृढ़ करता है कि मैं साधना के लिए उपस्थित हुआ हूं और मुझे इसमें प्रतिपल लगे रहना है। इसके साथ मार्ग भी प्राप्त होना चाहिए, अन्यथा वह चलेगा कहां, कैसे? भटक जाएगा। प्रेक्षाध्यान की पद्धति मार्ग है। मार्ग के होने पर निरन्तर भटकने वाले मन को बांधा जा सकता है, एकाग्रता साधी जा सकती है। बिना पद्धति या मार्ग के दस वर्ष भी ध्यान साध ना करते रहें, मन का भटकाव मिटेगा नहीं। मार्ग मिलने पर उसके भटकाव को दूर किया जा सकता है। साधक की आस्था जागे कि प्रेक्षाध्यान एक मार्ग है। मार्ग हो और सही नहीं हो तो भी कार्य सिद्ध नहीं होता। यह मार्ग सही है, पहुंचाने वाला है, भटकाने वाला नहीं। यह अन्तर्दर्शन या सम्यक्त्व भी हमारा जागना चाहिए। जहां हम पहुंचना चाहते हैं, वहां यह ले जाता है, यह अन्त:करण में आस्था होनी चाहिए। चौथी उपसंपदा है संयम की। मार्ग है पर संयम नहीं है तो भटकाव मिट नहीं सकता, अन्तर्दर्शन हो नहीं सकता। संयम आदमी को नियंत्रित रखता है। यह नियंत्रण उसे लक्ष्य प्राप्त करा देता है।
इन चार-तैयारी, मार्ग का चुनाव, अन्तर्दर्शन और संयम के होने पर ध्यान
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