SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिष्कार वैरवृत्ति का 111 निकल नहीं सकता । अध्यात्म का आयाम है— सब आत्माएं समान हैं । अन्ततः स्वरूपत: हम सब समान हैं । अध्यात्म की यह दृष्टि जब जागती है तब मैत्री की पृष्ठभूमी बनती है। प्रेम एक के साथ हो सकता है, दो-तीन के साथ हो सकता है । आध्यात्मिक मैत्री एक-दो-तीन के साथ नहीं होती । वह होगी तो सबके साथ, प्राणीमात्र के साथ, और नहीं होगी तो किसी के साथ नहीं होगी। इसकी परिधि में ऐसा नहीं होता कि इसके साथ मेरी मैत्री है और उसके साथ मेरा वैर-विरोध है । इसका घोष है— सभी जीवों के प्रति मेरी मैत्री है। इसमें कोई छूटता नहीं । एक भी छूटा तो वह मैत्री नहीं होगी, फिर चाहे हम उसे प्रेम कहें या और कुछ । मैत्री होगी सबके साथ। इसका तात्पर्य है कि जिसमें इस आध्यात्मिक मैत्री का जागरण हो गया वह व्यक्ति किसी का अनिष्ट नहीं कर सकता। मैत्री का अर्थ है— शत्रुता के भाव की पूर्णतः समाप्ति | मैत्री के विकास का यह अर्थ तो नहीं कि इष्ट करने की बात भी समान बन जाए । अनिष्ट किसी का न करे, यह तो संभव है, पर सबका इष्ट साधे, यह अपने शक्ति सामर्थ्य से परे की बात है 1 सबका इष्ट संपादित करना यह व्यवहार की बात है । व्यवहार सदा ससीम होता है । वह निःसीम हो नहीं सकता । मैत्री सबके साथ है। कपड़ा एक है तो क्या वह एक कपड़ा सबको दे पाएगा? यह कभी संभव नहीं है । व्यवहार में सीमा रहेगी । व्यक्ति के अन्तर्भाव में मैत्री हिलोरें लेती रहेगी, वह किसी का अनिष्ट न सोचेगा और न करेगा । दो बातें स्पष्ट समझ लेनी हैं। एक है इष्ट का संपादन और दूसरी है अनिष्ट का निवारण । इष्ट का संपादन व्यवहार की बात है, अनिष्ट का निवारण अपने अन्तर से संबंधित है । यह इतना व्यापक बन जाता है कि व्यक्ति किसी भी प्राणी का अनिष्ट नहीं करेगा, यह है वैरवृत्ति का परिष्कार । वैरवृत्ति का परिष्कार कर आदमी मैत्री के उस बिन्दु पर आरोहण कर सकता है जहां चढ़ जाने पर व्यवहार बहुत नीचे रह जाता है, किंचित्कर बन जाता हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy