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निश्चयनय : व्यवहारनय
हमारे सामने दो नय हैं-निश्चयनय और व्यवहारनय। दोनों नय अपने विचार में स्वतंत्र हैं, कोई परतन्त्र नहीं है। न व्यवहारनय निश्चयनय को परतन्त्र बनाता है और न निश्चयनय व्यवहारनय को परतन्त्र बनता है। दोनों का अपना-अपना स्वतन्त्र चिन्तन है । मर्यादा यह है- कोई भी नय एक दूसरे के चिन्तन में हस्तक्षेप नहीं करता । न निश्चयनय व्यवहारनय में हस्तक्षेप करता है और न व्यवहारनय निश्चयनय में हस्तक्षेप करता है, दोनों अपनी-अपनी सीमा में चलते हैं ।
महावीर का पुनर्जन्म
जैन शासन में दोनों नयों को समान स्थान दिया गया है। जैन दर्शन न केवल निश्चयनय का पक्षपाती है और न केवल व्यवहारनय का पक्षपाती है । अनेकांत का मतलब है तटस्थता । वह न व्यवहार को ज्यादा मूल्य देता है और न निश्चय को ज्यादा मूल्य देता है। एक आचार्य ने बहुत सुन्दर लिखा
जई जिणमयं पवज्जह, मा ववहारणिच्छियं मुयह । ववहारस्स उच्छेये, तित्थुच्छेदो हवई वस्सं । ।
यदि तुम जिनशासन को स्वीकार करना चाहते हो तो न व्यवहार को छोड़ो और न निश्चय को छोड़ो। दोनों को स्वीकार करो । व्यवहार के उच्छेद से तीर्थ का उच्छेद अवश्यंभावी है ।
शिष्य ने जिज्ञासा की - गुरुदेव ! निश्चयनय बिलकुल सही है क्योंकि यह अध्यात्म का मार्ग है, सत्य का मार्ग है, इससे आत्मा पवित्र और उत्तम बनेगी । इसे नहीं छोड़ना चाहिए पर व्यवहारनय तो बिलकुल स्थूल नय है । व्यक्ति इससे चिपक कर कब तक रहेगा? इसे तो छोड़ देना ही अच्छा है ।
आचार्य ने कहा- तुम सचाई को नहीं समझ रहे हो। अगर व्यवहार को उच्छेद हो गया तो तीर्थ का उच्छेद हो जाएगा। फिर यह परम्परा नहीं रहेगी, यह शासन, गण और संघ नहीं रहेगा। सब अकेले बन जाएंगे। कोई किसी का सहारा और मार्गदर्शक नहीं होगा। मार्गदर्शक के अभाव में सम्यक् पथ की प्राप्ति दुर्लभ हो जाएगी ।
दो मिल्यां दुःख होय
साधना के लिए गण और तीर्थ की भी जरूरत है। तीर्थ के सहारे हजारों व्यक्ति आते हैं, साधना करते हैं। पेड़ के सहारे हजारों-हजारों पक्षी आते हैं, बैठते हैं और विश्राम करते हैं। यदि सारे-के-सारे पेड़ काट दिए जाएं तो बेचारे पक्षियों का क्या होगा? अगर धर्मसंघ और परम्परा न हो तो लोगों को सहारा देने वाला कौन होगा? उन्हें साधना का रहस्य समझाने वाला कौन होगा? इसलिए दोनों को स्वीकार करो। अनेकांत का यह एक सुन्दर वर्णन है ।
दोय मिल्यां दुःख होय - यह सचाई है, यह भी नहीं कहा जा सकता और यह सचाई नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता। दोनों सत्य हैं किन्तु सापेक्ष । दो मिलने पर दुःख हो सकता है। जहां द्वन्द्व हुआ वहां दुःख हो सकता है । मनुष्य का सारा व्यक्तित्व द्वन्द्वात्मक व्यक्तित्व है। किसी व्यक्ति से पूछा
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