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दाय मिल्या दुःख होय
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भी सागर ऐसा नहीं है, जिसमें एक बूंद न हो। दोनों बातें साथ में जुड़ी हुई हैं। एक अनेक से जुड़ा हुआ है और अनेक एक से जुड़ा हुआ है। अकेला कौन?
वास्तव में वह व्यक्ति अकेला है जो भीड़ में अकेला है। वह व्यक्ति अकेला है, जो समूह में अकेला है। वह व्यक्ति अकेला है, जो कोलाहल में मौन है। वह व्यक्ति अकेला है, जो दौड़ में ठहरा हुआ है और वह व्यक्ति अकेला है, जो ठहरेपन में दौड रहा है। ऐसा व्यक्ति वस्तुतः अकेला होता है। अकेलेपन में भी दोनों क्रियाएं साथ-साथ चल रहीं हैं। हिमालय की कंदरा में जाकर जो वैट गया, वह अकेला हो गया पर उसके भीतर में भी एक कोलाहल भरा हुआ है, एक भीड़ भरी हुई है। अकेला व्यक्ति ध्यान करने बैठ गया, कमरा बन्द कर लिया, भीतर कोई नहीं है पर दिमाग में भीड़ भरी है। कितने विचार और कितनी अनुभूतियां उसके दिमाग में चक्कर लगाती हैं, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। पूरा अतीत उसका साथ दे रहा है। जब तक अतीत साथ देता है कोई व्यक्ति अकेला नहीं हो सकता। जब तब भविष्य साथ देता है कोई व्यक्ति अकेला नहीं हो सकता। अतीत की स्मृतियां और भविष्य की कल्पनाएं व्यक्ति को अकेला नहीं होने देतीं। अकेला वह हो सकता है जो अतीत से भी कट गया है और भविष्य से भी कट गया है, केवल वर्तमान से ही जुड़ा हुआ है। निश्चयनय की दृष्टि से वही व्यक्ति अकेला हो सकता है, दूसरा कोई नहीं। अकेलेपन का रहस्य
आगम साहित्य में बार-बार 'एक' शब्द का प्रयोग आया है। प्रश्न हुआ-अमुक व्यक्ति संघ में रह रहा है, फिर वह अकेला कैसे है? व्याख्याकारों ने स्पष्ट किया-अकेला वह है, जो राग-द्वेष से रहित है। निश्चय नय की दृष्टि से सब अकेले हैं, कोई दो नहीं है।
निश्चयं नयमाश्रित्य, सर्वोप्येकत्वमागतः ।
रागद्वेषविमुक्तोऽसौ, एक एव भवेज्जनः ।। जो राग-द्वेष मुक्त क्षण को जी रहा है, वह भीड़ में रहता हुआ भी अकेला है और जो राग-द्वेष युक्त जीवन जी रहा है, वह हिमालय की कंदरा में बैठा हुआ भी भीड़ में जी रहा है। यह अकेलेपन का एक रहस्य है।
शिष्य ने अपने गुरु से कहा-'गुरुदेव! मैं जंगल में जाना चाहता हूं।' 'किसलिए?' 'साधना करने के लिए। 'साधना तो यहां भी कर सकते हो। जंगल में जाकर क्या करोंगे?' 'जंगल साधना के लिए उपयुक्त होता है।'
'अगर राग-द्वेष नहीं जीता है तो जंगल में जाकर क्या करेगा और अगर राग-द्वेष को जीत लिया है तो फिर जंगल में जाकर क्या करेगा
रागद्वेषावनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि! रागद्वेषौ विनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि!
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