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________________ ७६ महावीर का पुनर्जन्म व्यक्तित्व का रूपान्तरण नहीं होगा, कर्म का बिन्दु परिवर्तित नहीं होगा। केवल कर्म से कर्म नहीं बदलता। महावीर ने अनुभव की वाणी में कहा-'न कम्मणा कम्म खति धीरा' कर्म से कर्म को नहीं खपाया जा सकता। स्वभाव के पीछे प्रेरणा है कर्म। कोई प्रयत्न उसे मिटा नहीं सकता। यदि अकर्म करें तो कर्म अपने आप नष्ट हो जाएगा, आदत अपने आप बदल जाएगी। अकर्म से ही कर्म को समाप्त करने की बात सोची जा सकती है। कर्म एक भूत की तरह है। यदि कोई भूत से लड़ता है तो उसकी शक्ति दुगुनी बढ़ जाती है, उसका बल दुगना हो जाता है। भूत से बचने का सबसे बड़ा उपाय है कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़ा हो जाना। कायोत्सर्ग एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें आदतों को बदलने का, स्वभाव परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण सूत्र उपलब्ध होता है। कहा गया-अकर्म से कर्म को क्षीण करो। कायोत्सर्ग एक अकर्म है, ध्यान एक अकर्म है। जब व्यक्ति अकर्म में चला जाता है, कर्म बेचारे कांप उठते हैं। जब तक यह अकर्म की बात समझ में नहीं आएगी तब तक रूपांतरण की बात भी समझ में नहीं आ पाएगी। कहा जाता है-खाली बैठना, खाली रहना अच्छा नहीं है। प्रसिद्ध कहावत है-खाली दिमाग शैतान का घर। वस्तुतः यह कहने वालों ने सचाई को ठीक पकड़ा नहीं। खाली दिमान शैतान का घर होता ही नहीं है। खाली दिमाग वह होता है जिसमें न कोई चिंतन होता है, न कोई विचार होता है, न कल्पना और स्मृति होती है। उसमें केवल अपनी शुद्ध चेतना का अनुभव होता हैं। जहां शुद्ध चेतना है, वहां शैतान आ ही नहीं सकता। असम्भव नहीं है रूपान्तरण अकर्म का अर्थ निकम्मा होना नहीं है। शायद जीवन के सफल और सार्थक क्षण वे हैं, जो अकर्म के क्षण हैं। अकर्म का क्षण वह है, जहां व्यक्ति कुछ भी नहीं करता, केवल अपनी आत्मा की सन्निधि में रहता है। यही परिवर्तन का बिन्दु बनता है। जो व्यक्ति एक चाह लेकर जाए और आधा घण्टा के बाद यह कह दे-मुझे कुछ नहीं चाहिए। क्या यह कल्पना की जा सकती है? क्या इतना रूपान्तरण संभव है? किन्तु असंभव नहीं है। जब व्यक्ति भीतर में चला जाता है, अपने प्रभु के पास चला जाता है, अपनी आत्मा की सन्निधि में चला जाता है, रूपान्तरण संभव बन जाता है। भीतर पंहुचने के बाद चाह नाम की कोई चीज ही नहीं रहती। जिस व्यक्ति ने भीतरी जगत् का अनुभव किया है, वह मिलने वाले वरदान को भी ठुकरा देता है। इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं। देने वाला कहता है-तुम मांगो और सामने वाला कहता है, मुझे कुछ नहीं चाहिए। दाता के पुनः आग्रह पर वह कहता है-अगर तुम देना चाहते हो तो दो, जिससे मेरे मन में मांगने की स्थिति ही पैदा न हो। यह रूपान्तरण अन्तश्चेतना के साथ सम्पर्क किए बिना होता नहीं है। परिवर्तन किसी व्यक्ति में स्वयं घटित हो जाता है, निसर्ग से हो जाता है। कभी निसर्ग से नहीं होता है तो अधिगम से हो जाता है। परिवर्तन की एक प्रक्रिया है और उससे गुजरने वाले व्यक्ति में परिवर्तन संभव है। यह रूपान्तरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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