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________________ रूपान्तरण का प्रतिनिधि ऋषि बन जाती है। इस स्थिति में भी परिवर्तन की बात सम्भव बनती है। बहुत सारी जटिल आदतें, जिन्हें छोड़ना सम्भव नहीं लगता, वे सम्मोहन में सुझाव देने से छूट जाती हैं। एक व्यक्ति तम्बाकू पीता है। वह उसके लिए अत्यन्त हानिकारक है । यह जानते हुए भी, उसे छोड़ने की इच्छा होते हुए भी वह उसे छोड़ नहीं पाता। यदि उस व्यक्ति को सम्मोहन की स्थिति में ले जाकर तम्बाकू से मुक्ति का सुझाव दिया जाए तो सम्भव है-उसकी तम्बाकू पीने की आदत छूट जाए । व्यक्ति की आंतरिक इच्छा उस बात को पकड़ लेती है और वह व्यक्ति सदा सदा के लिए उससे मुक्ति पा लेता है। ऐसा भी होता है-उसके बाद जब कभी तम्बाकू उसके सामने आती है, उसे ग्लानि का अनुभव होता है । स्थूल चेतना और सूक्ष्म चेतना के इस अन्तर्द्वन्द्व को समझना आवश्यक है । समाज में रहने वाला, सामाजिक जीवन जीने वाला व्यक्ति अच्छे आचरण को पसन्द करता है । कोई भी सामाजिक प्राणी यह नहीं चाहता - मुझे तिरस्कार मिले, तर्जना मिले, मुझे किसी के सामने सर झुकाना पड़े। किन्तु जब भीतर का वेग प्रबल होता है, आवेग उभरता है, तब चेतन मन बिलकुल सो जाता है और व्यक्ति अकरणीय काम कर लेता है। इस द्वंद्व से छुटकारा पाने का, अपने आपको रूपान्तरित करने का उपाय है आंतरिक इच्छा के साथ बाहरी इच्छा का सम्पर्क कर देना, आन्तरिक इच्छा तक अपनी बात को पहुंचा देना । व्यवहार का निर्धारक है कर्मशरीर व्यक्ति का सारा व्यवहार भीतरी चेतना चला रही है। कर्मशास्त्र की भाषा में कहें तो सारे व्यवहार का निर्धारक तत्त्व है कर्मशरीर । तैजस शरीर और औदारिक शरीर — ये दोनों व्यवहार के निर्धारक नहीं हैं। यदि कर्मशरीर को प्रभावित कर सकें तो परिवर्तन की संभावना की जा सकती है। यदि कर्मशरीर को प्रभावित न कर सकें तो परिवर्तन की संभावना ही नहीं हो सकती। कायोत्सर्ग मनोविज्ञान की प्रक्रिया भी है और अध्यात्म विज्ञान की प्रक्रिया भी है । अध्यात्म और विज्ञान का यही एक सूत्र है, जिससे परिवर्तन को सम्भव बनाया जा सकता है । अन्यथा कायोत्सर्ग जैसी विधि का कोई आकलन या मूल्यांकन नहीं होता । कायोत्सर्ग परिवर्तन का आधार बनता है किन्तु समस्या यह है- वर्तमान व्यक्ति को प्रवृत्ति जितनी प्रिय है, निवृत्ति उतनी प्रिय नहीं हैं । अकर्म से बदलता है कर्म ७५ मैंने एक प्रबुद्ध आदमी से कहा- आप ध्यान में क्यों नहीं आते? उसने उत्तर दिया- मेरा ध्यान में विश्वास नहीं हैं। एक घण्टा तक मैं पढूं, लिखूं, स्वाध्याय करूं तो काम की बात होगी पर आंख मूंदकर निकम्मा' बैठना मुझे पसन्द नहीं। मुझे बड़ा अजीब सा लगा। मैंने सोचा - इतना पढ़ा-लिखा, धर्म को जानने वाला ऐसी बात कर सकता है? एक बौद्धिक व्यक्ति को ऐसा लग सकता है किन्तु जव व्यक्तित्व के परिवर्तन की बात सोचते हैं तब यह तर्क टिकता नहीं है। जहां रूपान्तरण का प्रश्न है, परिवर्तन का प्रश्न है, वहां कर्म से अकर्म की और जाना होगा। जब तक अकम के बिन्दु को नहीं पकड़ा जाएगा तब तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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