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प्रस्तुति
आत्मविद्या का मूल मंत्र है-अपना शासन और अपना अनुशासन । भगवान महावीर ने कहा-स्वयं सत्य खोजो और सबके साथ मैत्री करो। सत्य की खोज अपना शासन है और मैत्री अपना अनुशासन है। आरोपित अनुशासन में प्रवंचना हो सकती है, मैत्री के अनुशासन में कोई प्रवंचना नहीं होती। दिया हुआ सत्य साक्षात्कार से शून्य हो सकता है पर स्वयं खोजा हुआ सत्य साक्षात्कार से शून्य नहीं हो सकता। 'स्वयं सत्य खोजो'-इस वाक्य ने अध्यात्म की दृष्टि को वैज्ञानिक बनाया है और 'सबके साथ मैत्री करो', इस मंत्र-वाक्य ने वैज्ञानिक की संहारक शक्ति पर अनुशासन स्थापित किया है।
सत्य की खोज से जो उपलब्ध हुआ, वह है अपरिग्रह, अहिंसा, व्युत्सर्ग, कायोत्सर्ग, भेदविज्ञान, आत्मज्ञान और पदार्थज्ञान। वर्तमान युग का वैज्ञानिक पदार्थ-विज्ञान से आत्मज्ञान की ओर मुड़ने का चिन्तन कर रहा है। समाजवादी अर्थव्यवस्था ममत्व के धागे को काट कर भेदविज्ञान के सूत्र को आगे बढ़ा रही है। सम्पत्ति समाज की है। उसे अपना मत मानो। चिकित्सा विज्ञान काया को चिरजीवी बनाने के लिए कायोत्सर्ग का प्रतिपादन कर रहा है। हिंसा और परिग्रह की समस्या ने वर्तमान मनुष्य को अहिंसा और अपरिग्रह के मूल्यांकन का अवसर दिया है। लोकतंत्र की चुनावी समस्या ने मनुष्य को व्युत्सर्ग की दिशा खोजने का संकेत दिया है।
'जाति का कोई महत्त्व नहीं है, वह जन्मना नहीं, कर्मणा होती है-यह सूत्र जातीय समस्या की भविष्यवाणी है। 'धर्म और सम्प्रदाय एक नहीं है', यह प्रवचन साम्प्रदायिक अभिनिवेश की समस्या की ओर अंगुलि-निर्देश करता है। समस्या आज की और समाधान महावीर का प्रतीति करा रहा है-महावीर अतीत नहीं, वर्तमान हैं। वैचारिक जगत ने उनके पुनर्जन्म को स्वीकृति दी है।
महावीर हैं एक मानव, एक दृष्टिकोण, एक सत्य। मानव मरणधर्मा है। वह जन्म लेता है और एक अवधि के बाद दिवंगत हो जाता है। दृष्टिकोण दिशादर्शन देता है, जागरण का शंख फूंकता है, बिम्ब और प्रतिबिम्ब के मध्य भेदरेखा खींचता है। सत्य त्रैकालिक होता है। वह कभी प्रकाशी होता है, कभी बादलों से ढक जाता है और कभी फिर प्रकाशी बन जाता है।
महावीर देह के बंधन को छोड़ मुक्त हो गए। अवतारवाद उन्हें मान्य नहीं था। मानव महावीर का पुनर्जन्म संभव नहीं रहा। महावीर के दर्शन और सत्य पर एक सघन आवरण आता हुआ सा दिखाई दिया। युगधारा बदली। वैज्ञानिक युग का प्रवर्तन हो गया। प्रतीत हुआ-महावीर का दर्शन प्रासंगिक हो रहा है। प्रासंगिकता इतनी बढ़ी है कि उसने महावीर के पुनर्जन्म को अनुभूति के स्तर पर रेखांकित कर दिया। वर्तमान अतीत बनता है, यह सामान्य अवधारणा है। वैज्ञानिक अवधारणा यह भी है-अतीत फिर वर्तमान बनता है।
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