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________________ चांद आकाश के अंचल को छूता है, चांदनी भूमि के तल को छूने लग जाती है। तमस ऊपर भी है, नीचे भी है। बाहर भी है, भीतर भी। सबसे जटिल है भीतर का तमस। उसे मिटाने के लिए उस चन्द्रमा की आवश्यकता है, जिसका शब्दांकन आचार्य मानतुंन ने किया है नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं, गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम्। विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्तिः, विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकबिम्बम् ।। जो सदा उदित रहे, मोह के महा अंधकार का विदलन करे, जिसे राहु ग्रस न सके, जिसे बादल आवृत न कर सके और जो विश्व को अपूर्व प्रकाश दे, ऐसा चन्द्रमा है अध्यात्म। अध्यात्म की चांदनी भीतर की चांदनी है। वह न बाहर से आती है और न किसी के द्वारा प्रद्योतित की जाती है। उसका प्रस्फुटन भीतर में ही होता है और स्वयं के द्वारा ही होता है। ___ अनेकान्त का दर्शन केवल उपादान को ही सब कुछ नहीं मानता। उसमें निमित्त का भी अवकाश है। जिसका जितना मूल्य उसकी उतनी स्वीकृति। न किसी का अधिक मल्य और न किसी की अधिक स्वीकति। प्रस्तुत ग्रन्थ का स्वाध्याय एक उद्दीपन है। जिनके भीतर चांदनी प्रगटी, उसे देखकर अपने भीतर चांदनी को प्रगट करने की भावना जागती है। हम चांदनी से परिचित हैं। आकाश में चांद को देखते हैं, उसकी चांदनी धरती पर चमकती है। मनुष्य शांति, शीतलता एवं प्रकाश-सबका एक साथ अनुभव करता है। अनजाना है चिदाकाश, अना जाना है चांद और अनजानी है चांदनी, इसलिए कि ये सब भीतर हैं। भीतर में जो है, उसे देखने के लिए खिड़कियां बंद हैं, दरवाजे भी बंद हैं। यदि हम इन्द्रियों की दिशा को बदलें, उनकी बहिर्मुखता को अन्तर्मुखता में बदल दें, मन की चंचलता पर कोई अंकुश लगा पाएं, खिड़कियां खुलती-सी नजर आएंगी। ___ हरिकेशबल की खिड़कियां खुल चुकी थी इसलिए उसे यह कहने का अधिकार मिला-'तपस्या श्रेष्ठ है, जाति श्रेष्ठ नहीं है।' भृगु पुरोहित के पुत्रों ने भीतर झांका, तभी उन्होंने कहा-'पिता! आत्मा अमूर्त है, उसे इन्द्रियों द्वारा नहीं देखा जा सकता।' भीतर की ज्योति विशद हुई और महारानी कमलावती बोल उठी-'नरदेव! केवल धर्म ही त्राण है, अन्य कोई त्राण नहीं है।' गर्दभालि अंतर के आलोक से आलोकित थे। उनकी एक आलोक-रश्मि प्रस्फुटित हुई और अन्तःस्वर गूंज उठा-'राजन! मैं तुम्हें अभय देता हूं। तुम भी सब जीवों को अभय दो।' . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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