SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैतिकता का आधार : नानात्व का बोध ५६ जो पिता अपने पुत्र का पुरानी संपत्ति के आधार पर विकास चाहता है, वह अपने पुत्र का हितैषी नहीं है । अनेक व्यक्ति कहते हैं - भाई ! बहुत धन पड़ा है हमारे पास, तुम कमा कर क्या करोगे? परावलम्बी जीवन जीना दूसरों के भरोसे पर जीवन जीना जितना खतरनाक होता है उतना बड़ा खतरा दुनिया में किसी बात का नहीं होता । बम्बई चातुर्मास में आचार्यवर ने कहा- तुम मेघ पर अष्टक लिखो । आचार्यवर के निर्देश को तत्काल स्वीकृत कर मैंने मेघाष्टक लिखा । उसका एक श्लोक है आश्रित्यानिलमूर्ध्वगा जलमुचो जानन्ति तत्त्वं न तत्, कुर्वन्तो गगनांगणे चपलताकेलिं हरन्ते मनः । स्तोकेनैव पलेन भूमिपतनं ते यान्त्यतर्क्यंधुवं अन्यालम्बनतो यदूर्ध्वगमनं तन्नास्ति रिक्तं भयात् ।। मेघ पवन के आश्रय से बहुत ऊंचे चले जाते हैं। वे तत्त्व को नहीं जानते वे आकाश में चपल क्रीड़ा करते हुए जनता का मन हर लेते हैं । वे थोड़े ही समय में अतर्कित रूप से भूमि पर गिर जाते हैं क्योंकि दूसरों के सहारे ऊपर चढ़ना खतरे से खाली नहीं होता । मेघ पवन के आश्रय से बहुत ऊपर उठा और हवा के सहारे ही नीचे गिरा । जो दूसरे के सहारे ऊपर उठता है, उसके पतन को रोका नहीं जा सकता। अपनी क्षमता और अपनी शक्ति के विकास के बिना केवल दूसरों के भरोसे पर चलना, दूसरों के सहारे ऊपर जाना खतरे से खाली नहीं होता । दूरी आराम और हराम में 1 पिता ने कहा- मेरी सम्पत्ति के भरोसे पर मत जियो। मैंने जो कमाया है उसके आधार पर मत जियो अपना पुरुषार्थ करो और कमाओ। मैं तुम्हे प्रारम्भ में हजार-हजार मुद्राएं दे देता हूं। इन्हें ले जाओ, प्रदेश में व्यापार को बढ़ाओ और कमाओ। तुम्हें लम्बे समय तक सुदूर प्रदेश में रहना है, बारह वर्ष की यात्रा करके वापस आना है और व्यापार का पूरा लेखा-जोखा मुझे देना I उस समय यात्रा के साधन तीव्र गति वाले नहीं थे। अधिकांश यात्राएं समय - साध्य और श्रम - साध्य होती थी । गंतव्य स्थल पर पंहुचने में भी छह-सात महीने लग जाते थे । पुत्र व्यापार के लिए चल पड़े। वे चलते-चलते एक शहर में पहुंचे। तीनों भाइयों ने परामर्श कर निश्चय किया-इसी शहर में रहेंगे, व्यापार करेंगे और कमाएंगे। तीनों सगे भाई काम-धंधे में लग गए। तीनों भाइयों के पास हजार-हजार मुद्राएं थी । हजार मुद्राएं उस समय बहुत होती थीं । सौ वर्ष पहले दो-चार रुपये एक परिवार के लिए एक महीने तक पर्याप्त होते थे । बड़े भाई ने सोचा- मेरे पास बहुत मुद्राएं हैं, आराम करूंगा । कोई चिन्ता की बात नहीं है । वह आराम में चला गया। जो आराम में जाता है वह हराम बन जाता है। आराम और हराम के बीच ज्यादा दूरी नहीं है । इधर आराम और उधर हराम - इतनी-सी दूरी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy