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________________ दुःख का मूल : अज्ञान आचार्य की सन्निधि में शिष्य समुदाय बैठा था । पश्चिम रात्रि का समय । दशवैकालिक सूत्र का सामूहिक स्वाध्याय । एक चरण आया- पढमं नाणं तओ दया - पहले ज्ञान फिर दया, अहिंसा या आचार। यह चरण उच्चरित होते ही प्रश्न उपस्थित हो गया। एक शिष्य बोला — गुरुदेव ! हमने सुना है - 'आचारः प्रथमो धर्मः' और महावीर कह रहे हैं- 'पढमं नाणं' । इन दोनों में संगति कैसे होगी? ७ आचार्य ने कहा- महावीर का दर्शन है— ज्ञानं प्रथमो धर्मः । धर्म का पहला प्रकार है श्रुत और दूसरा प्रकार है चारित्र । जब तक ज्ञान नहीं है, आचार की बात सोची नहीं जा सकती। अज्ञान से उपजा हुआ आचार कभी-कभी अनाचार भी बन जाता है। जैन दर्शन में कहा गया- 'नाणस्स सारं आयारो' ज्ञान का सार आचार है । यदि ज्ञान नहीं है तो सार कहां से आएगा, आचार कहां से आएगा? पहले कोई पदार्थ हो तभी उसका सार निकाला जा सकता है। आयुर्वेद की पद्धति में बहुत सारे सत्त्व निकाले जाते हैं। गिलोय का घन-सत्त्व, कुटज का घन-सत्त्व आदि। अगर कुटज ही नहीं है तो कुटज का घनसत्व कहां से आएगा? अगर गिलोय नहीं है तो गिलोय का घनसत्व कहां से आएगा? लोग नींबू के सत्त्व को बहुत काम में लेते है। अगर नींबू, इमली ही नहीं हैं तो उनका सत्त्व कहां से आएगा? मूल पदार्थ होता है तो उसका सत्त्व निकाला जा सकता है। ज्ञान का सार या सत्त्व है आचार । यदि ज्ञान ही नहीं है तो आचार कहां से आएगा। दुःख और अज्ञान है । अज्ञान बहुत बड़ा कष्ट है। जितने दुःख हैं, उन सबका कारण अज्ञान जावन्तविज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अनंतए । । प्रश्न हुआ - दुःख को पैदा कौन करता है? दुःख का सृजन किसने किया है ? उत्तर दिया गया - दुःख का सर्जक है अज्ञानी आदमी । अगर अज्ञान नहीं होता तो दुनिया में दुःख नहीं होता । अज्ञान और दुःख - दोनों में कार्य-कारण संबंध खोजा जा सकता है । प्रत्येक दुःख के पीछे व्यक्ति का अज्ञान काम कर रहा है। बुढ़ापा और बीमारी — ये दो शारीरिक स्तर पर होने वाले दुःख हैं । मानसिक तनाव, असहिष्णुता, विषाद आदि मानसिक स्तर पर होने वाले रोग हैं । प्रज्ञापराध भावनात्मक रोग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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