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पांच भावनाएं
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भावनाएं हैं। कोई भी साधक तब तक ध्यान का अधिकारी नहीं होता, जब तक वह अपने चित्त को इन भावनाओं से भावित नहीं कर लेता, भावितात्मा नहीं हो जाता।
पांच संक्लिष्ट भावनाएं भी हैं-कांदी-भावना, आभियोगिकी-भावना, किल्विषिकी-भावना, आसुरी-भावना और मोही भावना। जो आदमी धन की बार-बार भावना करेगा, वह धन से भावित होगा और जो काम की बार-बार भावना करता है, वह 'कामी' बनेगा। जिसका मन किसी भी बात से भावित नहीं होता, वह व्यक्ति उस बात से प्रतिबद्ध नहीं होता।
संक्लिष्ट भावनाएं सर्वथा वजनीय हैं, क्योंकि ये मन में संताप पैदा करती हैं, तनाव पैदा करती हैं। पहली संक्लिष्ट-भावना है-कान्दी-भावना । इसका व्यापक अर्थ है-कामचेष्टा में प्रवृत्त होना। हंसी-मजाक करना, विकथा करना-ये सब इसके साधन हैं। इन साधनों से यह भावना उदित होती है। आज के वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि क्रोध का तनाव भी होता है और भय का तनाव भी होता है, पर यह तनाव निरंतर नहीं होता, क्षणिक होता है। किन्तु काम का तनाव ऐसा है जो दीर्घकाल तक रहता है। सब तनावों से प्रखर तनाव हैं काम-वासना का तनाव। काम संबंधी सभी आचरण कान्दी भावना के अन्तर्गत आते हैं।
दूसरी संक्लिष्ट-भावना है-आभियोगिकी-भावना। इसका अर्थ हैं-मंत्र आदि का प्रयोग करना, वशीकरण करना, हुकूमत करना आदि। दूसरों पर अपना अधिकार या स्वामित्व जमाना, यह है आभियोगिकी-भावना। प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह भावना रहती है कि वह दूसरों पर अधिकार करे। इस वृत्ति से तृप्ति मिलती है।
तीसरी संक्लिष्ट-भावना है-किल्विषिकी-भावना। यह है क्लेश पैदा करने वाली भावना। यह है संघर्षण पैदा करने वाली भावना। निन्दा करना, ज्ञान और ज्ञानी का अवर्णवाद बोलना, संघ का अपलाप करना, व्यक्ति का तिरस्कार करना आदि किल्विषिकी-भावना की निष्पत्ति है।
चौथी संक्लिष्ट-भावना है-आसुरी-भावना। सदा विग्रह करते रहना, प्रमाद हो जाने पर भी अनुताप न करना, क्षमा-याचना कर लेने पर भी प्रसन्न न होना, निमित्त शास्त्र का प्रयोग करना, संसक्त तपस्या करना—यह सब आसुरी-भावना है। दिगंबर आचार्यों ने इसे सर्वभक्षी-भावना कहा है। जो सात्त्विक वृत्ति होती है, वह दैवी वृत्ति कहलाती है। जो क्रूर वृत्ति होती है, वह आसुरी वृत्ति कहलाती है।
पांचवी संक्लिष्ट-भावना हैं-मोही-भावना, सम्मोहन करने वाली भावना। परिवार के प्रति मोह, अपनों के प्रति मोह-यह जटिल भावना है। इससे छुटकारा पाना साधु-संन्यासियों के लिए भी दुष्कर होता है। यह ममत्व की भावना है। यह मेरा है, इस पर मेरा स्वामित्व है, यह इसी भावना की निष्पत्ति है। भगवान महावीर ने इसके प्रतिपक्ष में अप्रतिबद्धता की भावना का निरूपण किया था। यह साधु जीवन का निचोड़ है। जब साधु बन ही गया तो फिर प्रतिबद्धता कैसी?
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