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पांच भावनाएं
उत्तराध्ययन सूत्र हमारे चिन्तन का विषय था। आज वह पूरा हो रहा है। बहुत अन्तराल के बाद यह अंतिम भाषण है उत्तराध्ययन के विषय का। इसके बाद आचारांग का क्रम प्रारम्भ होगा।
उत्तराध्ययन का छत्तीसवां अध्ययन है-जीव और अजीव की विभक्ति। इसमें जीव-अजीव को विस्तार से समझाया गया है।
जीव और अजीव के भेद-प्रभेद जानना आवश्यक है, पर केवल जानना ही जरूरी नहीं है। जैसे कला के लिए कला, वैसे ही ज्ञान के लिए ज्ञान, तो फिर निष्पत्ति कुछ नहीं आएगी। कला इसलिए कि हम सत्य को सरसता के साथ देख सकें और चेतना को तृप्ति के वातायन में ले जा सकें। ज्ञान इसलिए कि ज्ञान के पश्चात् हम संतोष प्राप्त कर सकें और भीतर से सुख निकाल सकें। बाहर में जो सुख की खोज चल रही है, वह भीतर में होने लगे और भीतर से सुख निकाल सकें। सुख दो स्थानों पर है-अपनी आत्मा के भीतर तथा पदार्थ में । हम हजार बार कह दें कि विषयों के सुख को छोड़ दो, तो कोई नहीं छोड़ेगा । जब तक भीतर से होने वाले आत्म-सुख की प्राप्ति नहीं होती तब तक पदार्थ-सुख की बात छूटती नहीं। यह सचाई है कि जब तक बड़ी उपलब्धि नहीं होती तब तक छोटी उपलब्धि छूटती नहीं। जब बच्चों को वंशलोचन का स्वाद
आ जाएगा तो वह मिट्टी खाना छोड देगा। विकल्प चाहिए। जब भीतर का सख उपलब्ध होता है तो बाहर का सुख छूट जाता है।
उत्तराध्ययन सूत्र में भावनाओं का सुन्दर विवेचन प्राप्त है। भावना के दो प्रकार हैं-संक्लिष्ट भावना और असंक्लिष्ट भावना। एक है संताप या तनाव पैदा करने वाली भावना और दूसरी है ताप को हरानेवाली, प्राप्ति देने वाली और आनंद दायिनी भावना।।
एक प्रसिद्ध सूक्त है-यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी, जिसकी जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है। 'यो यत् श्रद्धः स एव सः' जिसकी जैसी श्रद्धा होगी, वह वैसा ही होगा। भावना हमारे निर्माण का घटक तत्व है। एक बात को जानना, जानी हुई बात को पुनः पुनः दोहराना, सोचना,
चन्तन करना-यह है भावना यानि बार-बार उसका अभ्यास करना, अनुशीलन करना।
जैन आगमों में पांच भावनाओं का निर्देश है-ज्ञान-भावना, दर्शन-भावना, चरिन-भावना, तप-भावना और वैराग्य भावना। ये पांच असंक्लिष्ट
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