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________________ धर्म की सार्वभौमिकता मछली बोली-'तुम भी मूर्ख हो। धर्म तुम्हारे भीतर है और तुम धर्म की परिभाषा बाहर पूछ रहे हो। क्या यह मूर्खता नहीं है।' धर्म हमारे भीतर है। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में धर्म है। यह निश्चय नय की भाषा में धर्म की परिभाषा है, अध्यात्म की परिभाषा है। धर्म के दो रूप धर्म के दो रूप बन जाते हैं-आध्यात्मिक धर्म और साम्प्रदायिक धर्म। प.ला धर्म आचरण से जडा हआ है, दुस.. . सना या क्रियाकाण्ड हुआ है। जहां व्यवहार नय से धर्म का विचार किया गया, वहां व्यवहार के नियम भी बतलाए गए। एक व्यक्ति गृहस्थ है और गृहस्थ वेश में उसे कैवल्य उपलब्ध हो गया, वह प्रत्येक-बुद्ध बन गया। एक गृहस्थ में बोधि जाग गई, साधुत्व जाग गया, वह साधु बन गया किन्तु जब तक वह वेश नहीं बदलेगा तब तक वह किसी को दीक्षित नहीं करेगा। यह है व्यवहार नय। सामाजिक नियम संघ-व्यवस्था के नियम बन जाते हैं। दो धाराएं धर्म का मूल-स्वरूप आकाश की भांति व्यापक है। उसमें कहीं कोई अवरोध नहीं है। इस दुनिया में इतने नए-नए और विशाल मकान बनते चले जा रहे हैं किंतु कोई भी मकान इस व्यापक आकाश को बांध नहीं सकता। धर्म भी ऐसा ही व्यापक है। समस्या यह है-धर्म को व्यापक अर्थ में आचरित नहीं किया जा रहा है। कुछ लोग दुहाई देते हैं—प्राणी मात्र समान हैं। कुछ लोग कहते हैं-सारे मनुष्य समान हैं। ये दो धाराएं चल रही हैं। महाभारत में कहा गया-'न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किचिंत्'-इस दुनिया में मनुष्य से श्रेष्ठ कोई नहीं है। इस आधार पर धर्म का एक नाम बन गया-मानव धर्म। मानव धर्म का मतलब है-मानव के साथ धोखाधड़ी मत करो, लूट-खसोट मत करो, अप्रामाणिकता मत करो। उसे मत सताओ। धर्म का दूसरा स्वर है-प्राणी मात्र के साथ समता का व्यवहार करो। ये दोनों धाराएं उद्घोषित होती रही हैं, किंतु आचरण शायद दोनों का ही नहीं हो रहा है। न प्राणी मात्र के प्रति समता का आचरण हो रहा है और न मानव मात्र के प्रति समता का आचरण है। यह सार्वभौम धर्म जीवन के व्यवहार में नहीं उतर रहा है। सार्वभौम धर्म को व्यवहार में अवतरित करने के लिए आचार्यतुलसी ने अणुव्रत का सूत्रपात किया। विकास है सूक्ष्मता में आदमी ने सदा सूक्ष्म को स्थूल बनाने का प्रयत्न किया है। सत्य का सिद्धांत है-स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना। जब तक माइक्रोस्कोप का निर्माण नहीं हुआ, तब तक विज्ञान का पूरा विकास नहीं हुआ। जैसे-जैसे वैज्ञानिक सूक्ष्म उपकरण बनाते चले गए, सूक्ष्मता को पकड़ते चले गए वैसे-वैसे विज्ञान का विकास होता चला गया। धर्म का विकास भी तब हुआ जब अतीन्द्रिय चेतना द्वारा सूक्ष्म सत्यों को जाना गया। सत्य की यात्रा के लिए स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना होता है। ज्ञान अमूर्त है। मनुष्य ने शास्त्र लिखे, अमूर्त ज्ञान को मूर्तिमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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