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________________ जैन मुनि और व्यावसायिक वृत्ति साधना का मार्ग एक ही प्रकार का नहीं रहा। उसमें तारतम्य रहा है। कुछ व्यक्तियों ने गृहस्थी को छोड़कर संन्यास की साधना की। कुछ व्यक्ति गृहस्थी में रहते हुए साधना में लगे रहे और कुछ व्यक्ति गृहस्थ-संत बने। तीन कोटियां हो गई। कबीर, तुकाराम संन्यासी नहीं बने। वे गृहस्थ-संत बने। श्रीमद् राजचन्द्र संन्यासी नहीं बने, गृहस्थ-संत बने। गृहस्थ-संतों की भी लम्बी परम्परा है। वे संत भी इतने पहुंचे हुए संत बने हैं कि उनकी उच्च साधना और अध्यात्म विकास की स्थितियां चौंकाने वाली हैं। कुछ गृहस्थ में रहते हुए संत नहीं कहलाए, पर बड़े साधक हुए हैं। रूपचंदजी सेठिया, सुजानगढ़ वाले, संत नहीं बने, संन्यासी नहीं बने पर किसी संत से कम नहीं थे वे। मिश्रीमल जी सुराणा, राणावास वाले भी ऐसे ही हैं। वे करोड़पति घराने के सदस्य हैं, पर आज भी कागज की थेलियां बनाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। अस्सी वर्ष की उम्र में भी स्वयं अर्जन कर रोटी खाते है। इनका मनोबल बहुत ऊंचा है और साधना कठोर है। आज भी ये ३-४ घंटा खड़े-खड़े ध्यान करते हैं। शीर्षासन में दो सामायिक कर लेते हैं। आज स्थिति यह है कि इनके संकेत पर पांच लाख रुपया मिल सकता है, पर खुद के खाने के लिए इन्हें कमाना पड़ता है। कमाना पड़ता नहीं, इन्होंने स्वयं त्याग किया है। ये क्या कम हैं संतों से? साधना की अलग-अलग भूमिकाएं हैं। मुझे आज संन्यास की भूमिका की चर्चा करनी है। संन्यास की भूमिका में यह माना गया है कि भिक्षा करो, आजीविका मत कमाओ-'भिक्खीअब्वं न केयव्वं'–भिक्षा करो, क्रय-विक्रय मत करो। कुछ लोग मानते हैं कि जितना आवश्यक हो उतना कमाओ, मुफ्त का मत खाओ, फिर साधना में लग जाओ। किन्तु सभी संन्यास की परंपराओं में, चाहे बौद्ध हो या श्रमण या वैदिक संन्यासी, सबके लिए यह नियम रहा कि व्यवसाय मत करो। व्यावसायिक वृत्ति साधना में बाधा पहुंचाती है। क्रय-विक्रय साधना का बाधक तत्त्व है। इससे लोभ पैदा होता है, बढ़ता है। जैन परंपरा इस विषय में बहुत शुद्ध परम्परा रही है। उसमें कहा गया कि क्रय-विक्रय की वृत्ति से, पैसे की मनोवृत्ति से साधु-संस्था दूर रहे। यह एक सर्वमान्य बात है कि अकिंचन साधु देखना हो तो जैन मुनि को देखो। सर्वत्र यह छाप थी। अन्यान्य साधु-संस्था के मानदंड कुछ और हैं। किस संन्यासी का आश्रम सबसे बड़ा है? वह संन्यासी बड़ा माना जाता है। जिसके पास आयातित कार हो, करोड़ों का बैंक बेलेंस हो। यह पहचान पहले उद्योगपतियों की थी, परन्तु आज यह साधुओं की होने लगी है। वे इस दौड़ में अहमहमिया दौड़ रहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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