________________
५१८
महावीर का पुनर्जन्म हम इनका विश्लेषण करे। कहां खंजन जैसा काला रंग और कहां चांदी जैसा चमकता हुआ श्वेत रंग! कहा मृत कलेवर से अनंतगुना अधिक दुर्गध और कहां सुरभित पुष्प से अनंतगुना अधिक सुगंध ! कहां कच्ची केरी से अनंतगुना खट्टा रस और कहां शक्कर से अनंतगुना मीठा रस! कहां करवत से अनंतगुना तीक्ष्ण स्पर्श और कहां नवनीत से अनंतगुना कोमल स्पर्श! लेश्या लेश्या में कितना तारतम्य है? दोनों प्रकार के परमाणु हमारे भीतर और आसपास बिखरे हुए हैं। यह हमारे हाथ में है कि हम किससे काम लें। यह प्रत्येक व्यक्ति पर निर्भर है कि वह चाहे तो करवत से काम ले या नवनीत सी मृदुता को अपनाए। व्यक्ति अपने सुख-दुःख का कर्ता स्वयं है, यह वाक्य इस संदर्भ में कितना रहस्यपूर्ण है। कहा गया-'अप्पा कत्ता विकत्ता य'-आत्मा ही कर्ता है और आत्मा ही विकर्ता है। एक नौसिखिया व्यक्ति भी इसका सही अर्थ कर देगा पर सरल दिखाई देने वाले वाक्य के पीछे कितना रहस्य छिपा है। एक ओर अप्रशस्त वर्ण, गंध, रस
और स्पर्श हैं दूसरी ओर प्रशस्त वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हैं। हम किन परमाणुओं का उपयोग करें? किसका स्विच ऑन करें और किसका स्विच ऑफ करें? किस बटन को दबाएं और किस बटन को खोलें? यह हमारे हाथ की बात है और यही है पुरुषार्थवाद या आत्मकर्तृववाद। प्रवर्तन हो नई धारा का
___ हम इस बिन्दु पर सोचें-धार्मिक जगत दुनिया को बहुत बड़ा अवदान दे सकता है, एक नई धारा का प्रवर्तन कर सकता है। लेश्या का सिद्धान्त एक ऐसा सिद्धान्त है, जिसका उपयोग शिक्षा और चिकित्सा-~-दोनों क्षेत्रों में किया जा सकता है। धार्मिक जगत के ऐसे अनेक अवदान हैं, जो दुनिया के लिए सुख और शान्ति का स्रोत बन सकते हैं। आज अध्यात्म के क्षेत्र में कुछ ऐसी नई शाखाओं का शिलान्यास होना चाहिए। प्रासाद खड़ा होने में समय लग सकता है। ऐसा बीज बोएं और उसे निरन्तर सिंचन देते रहें, एक दिन वह एक विशाल वृक्ष बन जाएगा। आवश्यकता है बीजारोपण की, सिंचन और सुरक्षा की। अध्यात्म के क्षेत्र में कुछ नए बीज बोए जा सकते हैं, कुछ नए प्रासाद खड़े किए जा सकते हैं, जिनका निर्माण विज्ञान के द्वारा संभव नहीं है। हालांकि वैज्ञानिक लोग अनेक दिशाओं में आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील है लेकिन कुछ कार्यक्रम ऐसे हैं, जो अध्यात्म के लोगों को विरासत से उपलब्ध हैं और जिन तक वैज्ञानिकों की पहुंच नहीं है। अध्यात्म के लोगों को कहीं से कुछ आयात करने की जरूरत नहीं है, मांगने की जरूरत नहीं है। हम केवल अपने आपसे मांगे। अपनी साधना और आराधना से मांगें। अपने तत्त्वज्ञान और अध्यात्म दर्शन से मांगें। हमें विरासत से विशाल ज्ञान राशि उपलब्ध है। केवल जरूरत है निर्माण की, गहन अध्ययन और मनन की, सघन चिन्तन और मंथन की। यदि यह हो जाए तो बहुत सारी नई बातें प्रस्तुत की जा सकती हैं।
लेश्या जैसा गंभीर सिद्धान्त जिस दर्शन के पास है और जिसके महत्त्वपूर्ण फार्मूले उपलब्ध हैं क्या भाव चिकित्सा के क्षेत्र में नया काम नहीं कर
सकता? हम शरीर चिकित्सा की बात छोड़ दें, चीर-फाड़ करने की बात छोड़ दें। Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org