SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१६ महावीर का पुनर्जन्म बनता है । लेश्या की गंध हमें प्रभावित करती है। गंध का प्रभाव एनीमल ब्रेन पर होता है । यह ब्रेन का एक हिस्सा है, जिसे पाशविक मस्तिष्क कहा जाता है । अप्रशस्त लेश्याओं की गंध बहुत खराब होती है। कृष्ण, नील और कापोत लेश्या की गंध इतनी खराब होती है कि आदमी उसे सहन ही नहीं कर पाता। यह एक सुविधा है कि वह गंध बहुत सूक्ष्म है और आदमी उसे पकड़ नहीं पाता। यदि स्थूल गंध इतनी खराब हो तो आदमी एक क्षण भी जी नहीं पाए। प्रकृति ने एक व्यवस्था कर दी है-व्यक्ति अमुक फ्रिक्वेंसी या अमुक मात्रा में ही गंध को ग्रहण कर पाता है । वह सूक्ष्म गंध को ग्रहण ही नहीं कर पाता। हमारे चारों ओर गंध ही गंध है पर हम उसे पकड़ नहीं पाते। हम केवल स्थूल बात को पकड़ने में ही समर्थ होते हैं । हमारी शरीर रचना भी ऐसी ही है। इन्द्रियां केवल स्थूल को ही अपना विषय बना पाती हैं। यदि इन्द्रियां सूक्ष्म को पकड़ने लग जाए तो हम विचित्र स्थिति में फंस जाएं। हमारे चारों ओर कोलाहल हो रहा है। वह हमें सुनाई नहीं देता । यदि व्यक्ति इस कोलाहल को सुनने लगे तो पागल बन जाए। हमारे शरीर के भीतर भी कितना कोलाहल है ! वह भी हमें सुनाई नहीं देता । हमें स्थूल आवाज ही सुनाई देती है । यह बहुत अच्छी व्यवस्था है, अन्यथा व्यक्ति का जीना दूभर हो जाए। इसी प्रकार गंध भी बहुत प्रबल है। चाहे हम उसको पकड़ न पाएं पर वह हमारे मन और शरीर को प्रभावित अवश्य करती है। ईर्ष्या का भाव मन में आया, घृणा और द्वेष का भाव मन में आया, व्यक्ति चिड़चिड़ा बन जाएगा, वह मन ही मन घुटेगा, जलता रहेगा । उस अवस्था में अप्रशस्त गंध अपना जबरदस्त प्रभाव डालेगी, शरीर और मन को बीमार बना देगी। आजकल न जाने कितने लोग इन भावों के कारण बीमार बने हुए हैं। वर्तमान वैज्ञानिक कहते हैं- आंतों का घाव, व्रण, अतिसार, हार्ट अटेक आदि आदि जो बीमारियां हैं, उनके पीछे भावनात्मक कारण ज्यादा कार्य करते हैं । निषेधात्मक भाव और मानसिक तनाव इनकी उत्पत्ति के मुख्य हेतु बनते हैं । लेश्याओं की जितनी खराब गंध है उतनी दुर्गंध हमारी दुनिया में नहीं है । लेश्याओं का रस जितना खट्टा है उतना खट्टा रस भी स्थूल जगत में नहीं है। आम की कच्ची केरी को बहुत खट्टा माना जाता है। वह इतनी खट्टी होती है कि आदमी के दांत भी उसे खाने से खट्टे हो जाते हैं । व्यक्ति उसे खा नहीं पाता । लेश्या का रस उससे भी अनंतगुना खट्टा है। क्या दुनिया में इतना खट्टा पदार्थ है? लेश्या का स्पर्श भी अत्यन्त तीक्ष्ण होता है। जिस लेश्या में झूठ, कपट, ईर्ष्या और कामवासना के भाव पैदा होते रहते हैं, उस कृष्ण लेश्या का स्पर्श कितना तीक्ष्ण है! हमने करौत को देखा है। वह जब चलती है, काठ को चीरती चली जाती है । काठ का पता ही नहीं चलता । तीक्ष्ण शस्त्र मारबल को भी शीघ्रता से चीर देता है । उस करीत से भी अनंतगुना तीखा स्पर्श है कृष्ण लेश्या का। हम उसकी तीक्ष्णता की कल्पना भी नहीं कर सकते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy