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महावीर का पुनर्जन्म
के मन में विकल्प उठा- 'जो बंदर रोज इतने आम खाता है, उसका मांस कितना मधुर होगा ?' उसने पति से आग्रह किया - 'मुझे आम नहीं चाहिए। मुझे वह बंदर चाहिए, जो इतने मीठे-मीठे आम खाता है । आप उस बंदर को लाएं, मैं उस बंदर को खाऊंगी। मुझे बंदर का कलेजा चाहिए ।' मगरमच्छ ने कहा - 'तुम कैसी बात करती हो? वह मेरा मित्र है, मैं उसे कैसे मारूं ?" मगरमच्छ की पत्नी अपने आग्रह पर अड़ी रही । मगरमच्छ कृतघ्न नहीं था किन्तु पत्नी के दुराग्रह के सामने उसे झुकना पड़ा। उसने सोचा- 'यदि इसकी भावना पूरी नहीं करूंगा तो घर में कलह होगा, अशांति हो जाएगी।' वह दूसरे दिन बंदर से बोला- 'भैया! मेरी पत्नी ने तुम्हें बुलाया है? क्या तुम उससे मिलना नहीं चाहोगे?” बंदर बोला- 'मैं पानी में कैसे जा सकता हूं?' मगरमच्छ ने उसकी समस्या को समाहित करते हुए कहा- 'तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ, मैं तुम्हें ले चलूंगा ।' मगरमच्छ की बात स्वीकार कर बंदर उसकी पीठ पर बैठ गया । मगरमच्छ बहुत भावुक था । उसने मार्ग में यह बात बता दी कि तुम्हारी भाभी ने तुम्हारा कलेजा खाने के लिए तुम्हें बुलाया है। बंदर ने चतुराई से काम लिया । उसने कहा - 'तुम कैसे मूर्ख हो? हम तो पेड़ों पर इधर-उधर कूदते - फांदते रहते हैं, कलेजा साथ में नहीं रखते। पहले बताते तो कलेजा साथ ले आता । चलो, वापस चलो, हम कलेजा ले आते हैं।' मगरमच्छ वापस किनारे की तरफ चल पड़ा। जैसे ही तट आया, बन्दर उछल कर पेड़ पर चढ़ गया ।
मगरमच्छ भावना के स्तर पर था, उसमें चिन्तन नहीं था । ज्योंहि बंदर पेड़ पर चढ़ा, मगरमच्छ उसे देखता रह गया । उसे बंदर का चातुर्य समझ में आ
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गया ।
चिन्तन और भावना
हर प्राणी भावना के स्तर पर काम करता है। गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा- इनमें चिन्तन नहीं होता। इनके पास मन है, पर बहुत छोटा मन है । त्रैकालिकसंज्ञानं मनः – दीर्घकालिकी संज्ञा है मन-मन की यह परिभाषा शायद पशुओं में ज्यादा घटित नहीं होती। यह परिभाषा मनुष्यों के लिए घटित हो सकती है पर सभी मनुष्यों के लिए भी नहीं । ऐसे भोले आदमी भी हैं, जो एक घंटा बाद की बात भी नहीं सोच सकते और एक घंटा पहले क्या किया, यह भी नहीं सोच सकते । न उन्हें कुछ याद रहता है, न कल्पना कर सकते हैं, न योजना बना सकते हैं और न चिन्तन कर सकते हैं । समनस्क होते हुए भी अनेक मनुष्य इस प्रकार के होते हैं। पशुओं की बात ही क्या है?
मन का काम है - सोचना, चिन्तन करना । मन और भाव एक नहीं हैं। लेश्या मन नहीं है । भाव हमारी चेतना का गहरा स्तर है, जिसे मनोविज्ञान की भाषा में सब- कोंशियस कहा जा सकता है । मनोविज्ञान में तीन शब्द हैं— कोंशियस, सब- कोंशियस और अन- कोंशियस, अचेतन मन हमारा अध्यवसाय हो सकता है। यहां अचेतन का अर्थ जड़ नहीं है। जहां चेतन मन काम नहीं करता वहां भीतरी चेतना काम करती है और उसी का नाम है अचेतन मन ।
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