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कर्म : विपाक और स्थिति
धर्म के बारे में एक धारणा है-धारणात् धर्म उच्यते-जो समाज को धारण करता है, वह धर्म है। इस धारणा को स्वीकार किया जाए तो धर्म को समाज की व्यवस्था के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता। जैसे राजनीति के लोग समाज की व्यवस्था करते हैं वैसे ही धर्मिक लोग समाज की व्यवस्था करते हैं। समाज में अनैतिकता न आए, बुराई न आए यह धर्म का काम है और यहीं धर्म की सीमा समाप्त हो जाती है। जैन धर्म इस धारणा को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार धर्म समाज को धारण करने के लिए नहीं है। वह व्यक्ति का
आध्यात्मिक नियम है। जो लोग केवल समाज की भूमिका में सोचते हैं, उनके लिए धर्म बहुत छोटी सी बात बन जाता है। जैन धर्म के अनसार धर्म एक
आध्यात्मिक या आंतरिक नियम है। जब जैन आचार्यों ने स्थूल से हटकर सूक्ष्म में प्रवेश किया जब उन्हें लगा-व्यक्ति के भीतर व्यक्ति को चलाने का एक आंतरिक नियम है और उससे व्यक्ति चलता है। उन्होंने आंतरिक नियम के आधार पर बहुत सारे रहस्यों का पता लगाया। फ्रायड ने जो चेतन मन से हटकर अवचेतन मन की बात कही, वह स्थूल जगत की नहीं, सूक्ष्म जगत की बात थी। इस स्थिति में व्यक्ति आंतरिक जगत में पहुंच जाता है। अध्यात्म में, अन्तर्जगत में पहुंचे बिना सूक्ष्म जगत को जाना नहीं जा सकता। चेतना और कर्म
धर्म को समझने के लिए कर्म को समझना बहुत जरूरी है। जो व्यक्ति कर्मवाद के मर्म को नहीं जानता, वह धर्म को नहीं जान सकता, अध्यात्म को नहीं जान सकता। अध्यात्म के दो मूल तत्त्व हैं-चेतना और कर्म। इन दोनों का संबंध है और इसी का नाम है अध्यात्म। जो चेतना और कर्म के संबंधों को नहीं जानता, उनकी व्याख्या को नहीं जानता, वह आध्यात्मिक नहीं हो सकता।
'मिलावट मत करो', 'भ्रष्टाचार मत करो'–ये समाज के व्यापक नियम हैं। व्यक्ति इनमें धर्म माने या न माने, किन्तु वह इन्हें समाज हित में अवश्य स्वीकार करता है। क्या धर्म को न मानने वाले साम्यवादी देश भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देंगे? कोई देश नहीं चाहता-हमारे राष्ट्र में भ्रष्टाचार, अनैतिकता और बुराइयां चले। यह चाह किसी भी देश या समाज की नहीं होती। धर्म इससे बहुत गहरे में आता है। उसका तात्पर्य है-उस स्थिति को देखना, जहां बन्धन हो रहा
है, कर्म व्यक्ति को बांध रहा है। इन नियमों को समझने वाली चेतना अध्यात्म Jain Education International For Private & Personal Use Only
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