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लोकवाद का प्रश्न
लोकवाद से भी व्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित है। जब लोकवाद का प्रश्न सामने आता है, व्यक्ति की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है। अनेक व्यक्ति सोचते हैं - यह काम बहुत अच्छा है। मुझे ऐसा करना चाहिए, किन्तु लोग क्या कहेंगे? अनेक साधु-साध्वियां आचार्यवर से कह देते हैं- मुझे तो कोई चिन्ता नहीं, चाहे जहां आप रखें, पर लोग क्या कहेंगे। लोग कहेंगे-अमुक साधु इतना होशियार है और वह छोटे गांव में चौमासा करता है। यह समस्या है लोकवाद की । अनेक गृहस्थ सोचते हैं- मैं तो सादगी से विवाह कर दूंगा पर पड़ोसी क्या कहेंगे-इतना सम्पन्न आदमी है और इसने इस प्रकार का विवाह किया है । इस लोक संज्ञा या लोकवाद से व्यक्ति बहुत प्रभावित है । व्यक्ति शायद सबसे ज्यादा प्रभावित लोकवाद से ही होता है। आवेश, भय, प्रलोभन, अहं – ये भी व्यक्ति के छन्द को प्रभावित करते किन्तु सबसे ज्यादा प्रभावित करता है लोकवाद । बहुत बार ऐसा स्वर सुनने को मिलता है-मुझे कोई चिंता नहीं है पर दूसरे क्या समझेंगे ? छंद-निरोध का अर्थ यह नहीं है—व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का निरोध करे । नैतिक आचरण में, धर्म के आचरण में संकल्प की स्वतंत्रता होनी चाहिए । अगर वह नहीं है तो कुछ भी नहीं होगा। आचार्यवर ने एक दिन प्रवचन में कहा था- हम लोग कुछ करना चाहते हैं पर साधु-साध्वियां उसके लिए तैयार नहीं हैं तो कुछ भी नहीं होगा। उनका स्वतन्त्र संकल्प नहीं है तो कोई भी काम नहीं हो सकेगा । छंद-निरोध का अर्थ
महावीर का पुनर्जन्म
छन्द का निरोध करने से मुक्ति मिलेगी, इसका मतलब छन्द को रोकना नहीं है । छन्द रुकेगा तो कविता भी नहीं बनेगी। कविता तभी बनेगी जब छन्द चलेगा। छन्द नहीं है तो कविता कहां से आएगी? छंद की, स्वतंत्रता की सीमा को समझना है । दार्शनिक भाषा से मुक्त होकर सरल भाषा में कहा जाए तो छंद-निरोध का तात्पर्य है-वासनात्मक छन्द को रोकना और विवेकात्मक छन्द का उपयोग करना । भय, क्रोध, काम आदि वासनात्मक छंद का निरोध करना और विवेकात्मक छंद का पूरा उपयोग करना, यह है स्वतंत्रता की सीमा । व्यक्ति विवेकात्मक छन्द का उपयोग करने में पूरा स्वतन्त्र है । उसका जितना उपयोग किया जाएगा, व्यक्ति की प्रसन्नता बढ़ती चली जाएगी।
स्वतंत्रता की सीमा को अगर पारिभाषिक शब्दावली में कहा जाए तो छंद निरोध का अर्थ है-आठ आत्माओं में कषाय आत्मा का निरोध करना तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपयोग आत्मा को काम में लेना । केवल निरोध नहीं, निरोध और प्रयोग- दोनों साथ में चलते हैं। सीधे शब्दों में कहा जा सकता
-वासनात्मक आत्मा को सुला देना और विवेकात्मक आत्मा को जगा देना । एक को सुलाना है और एक को जगाना है । यदि ऐसा होता है तो स्वतंत्रता अक्षुण्ण बन जाती है, उसमें कहीं कोई बाधा नहीं आती। जो नहीं करना है, जो अनाचरणीय है, जो अकर्तव्य है, उसका निरोध करना ही छंद का निरोध है ।
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