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महावीर का पुनर्जन्म व्यक्ति व्यक्ति में भेद का प्रश्न बहुत पुराना है। गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-'भंते! यह भेद क्यों दिखाई दे रहा है? प्रत्येक व्यक्ति में भेद है। इसका कारण क्या है?' भगवान महावीर ने कहा-'कम्मओ णं विभत्तीभावं जणयई-भेद का कारण है कर्म । सारी विभक्तियां, विभिन्नताएं कर्म के कारण हो रही हैं।' व्याकरण में सात विभक्तियां होती हैं। कर्म के द्वारा न जाने कितनी विभक्तियां-भेद की रेखाएं खींची जा रही हैं।।
एक है हमारा स्थूल शरीर-औदारिक शरीर। उससे आगे है--सूक्ष्म शरीर-तैजस शरीर। उससे भी सूक्ष्म है-सूक्ष्मतर शरीर-कर्म शरीर। कर्म-शरीर तक पहुंचने पर हमें इस प्रश्न का समाधान प्राप्त होता है।
यह भेद करने वाला हमारे भाग्य का विधाता हमारे भीतर बैठा है। वही हमारे भाग्य की लिपि लिख रहा है। यह छट्ठी का लेख कोई दूसरा नहीं लिख रहा है, उसे लिखने कोई विधाता नहीं आ रहा है। प्राचीन परम्परा रही है जिस दिन बच्चा छह दिन का होता, उस दिन रात को स्याही, लेखनी और कागज रखा जाता। झरोखे को खुला रखा जाता। लोग कहा करते-भाई! विधाता आएगा
और भाग्य की लिपि लिखेगा। यह एक परम्परा रही है, इससे अधिक इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
हमारी भाग्यलिपि को लिखने वाला विधाता है कर्म। कर्म को समझे बिना, अतीत को समझे बिना वर्तमान को पूरा नहीं समझा जा सकता। जो व्यक्ति केवल वर्तमान को जानता है, केवल वर्तमान के आधार पर निर्णय लेता है, केवल वर्तमान के आधार पर जीवन को चलाने का प्रयास करता है, वह सदा धोखे का जीवन जीता है। अनेक वर्तमान की एक जुड़ी हुई श्रृंखला है अतीत। वर्तमान मात्र एक घटना है। अतीत उसे प्रभावित कर रहा है। अतीत वह है, जिसका हमने निर्माण किया है, जिसे हम जी चुके हैं और जो हमारा वर्तमान रहा है। हमारा वर्तमान ही अतीत बनता है। उससे कटकर हम वर्तमान की व्याख्या नहीं कर सकते। जैन दर्शन में कर्म
हमें कर्म शब्द को भी समझना है। कर्म का अर्थ है क्रिया, काम करना। कर्म का दूसरा अर्थ है संस्कार। बहुत सारे दार्शनिकों और धर्म-संप्रदायों ने कर्म को संस्कार के रूप में मान्य किया है। जैन परम्परा में कर्म शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में हुआ है। क्रिया करने के साथ, प्रवृत्ति के साथ जिन पुद्गलों का, पुद्गल स्कन्धों का संचयन होता है, संग्रहण होता है उन पुद्गलों का नाम है कर्म। पौद्गलिक रचना है कर्म । केन्द्र में है आत्मा। आत्मा के परिपार्श्व में अनेक पौद्गलिक संरचनाएं हैं। उनमें सबसे पहली पुद्गल संरचना कर्म की संरचना है। इसका अर्थ है-आत्मा के चारों ओर कषाय का वलय है। नाभि में आत्मा है और परिपार्श्व में है कषाय, कर्म-संरचना। मोहनीय कर्म, ज्ञान का आवरण आदि-आदि आत्मा के परिपार्श्व में हैं। उपनिषद् में पांच कोष माने गए-अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष। इन
पांच कोषों के भीतर जीव-आत्मा को माना गया। जैन दर्शन के अनुसार मानें Jain Education International
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