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________________ वह अपने देश में चला जाता है ४३६ हम शरीर के साथ घुल मिल गए, उसे ही सब कुछ मान लिया। एक व्यक्ति अमेरिका या इंग्लैण्ड चला गया। वह विदेश में रहने लगा। उसने वहीं शादी कर ली। वह वहां का नागरिक बन गया, वहीं रच-पच गया। वह पूरा विदेशी बन गया। उसने स्वदेश को भुला दिया। विदेश जाने के साथ बंधन भी जुड़े हुए हैं। विदेश जाने से पूर्व वीसा का होना जरूरी हैं। एक वीसा के लिए न जाने कितने कार्यालयों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। अनेक तरह के प्रतिबंध वीसा के साथ जुड़े हुए होते हैं। जितने दिन का वीसा है, वह उससे ज्यादा रह नहीं सकता। हम भी विदेशी हैं, अपने देश को भूले हुए हैं। अनेको बंधनों से हम बंधे हए हैं। असंयम का बंधन है. राग और द्वेष का बंधन है मनोदण्ड वचनदण्ड और कायदण्ड का बंधन है, माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यादर्शन का बंधन है। हम जितने बंधनों से घिरे हुए हैं उतने बंधन सरकार भी शायद नहीं लगाती। इतने बंधनों के मध्य जीना क्या जीना है ? जिस दिन यह अनुभूति व्यक्ति के भीतर जागती है, वह संसार में रहना पसंद नहीं करता, विदेश में रहना पंसद नहीं करता, वह अपने देश में लौट आता है। जब तक यह अनुभूति नहीं जागती, व्यक्ति विदेश में रचा-पचा रहता है। जब यह ज्ञात हो जाता है-विदेश–संसार बंधनों का घर है, उसमें बंधन ही बंधन हैं, चारों ओर नाशपाश ही नागपाश हैं, तब व्यक्ति संसार-विदेश में रहना नहीं चाहता। सम्यग् दर्शन : एक परिभाषा धार्मिक आदमी का चिन्तन तभी बदलता है जब उसके सामने मोक्ष की धारणा स्पष्ट हो जाती है। जब तक मोक्ष की धारणा स्पष्ट नहीं होती, व्यक्ति का चिन्तन नहीं बदलता! सम्यक् दृष्टिकोण की अनेक परिभाषाएं की गई। उसकी एक परिभाषा की जा सकती है-मोक्ष को समझ लेने का नाम है सम्यग् दर्शन। जब तक मोक्ष को सम्यग् रूप नहीं समझा जाता तब तक पूरा सम्यग् दर्शन नहीं आता। धर्म को अधर्म समझना, मार्ग को अमार्ग समझना मिथ्यात्व है किन्तु यह साधना के साथ जुड़ा हुआ है। मोक्ष साध्य है। मोक्ष को अमोक्ष समझना और अमोक्ष को मोक्ष समझना भी मिथ्यात्व है और वह साध्य के संदर्भ में है। आत्मा कहां है? मोक्ष को समझने का मतलब है आत्मा को समझना। आत्मा और मोक्ष-दो बात नहीं हैं, एक ही बात है। जो मोक्ष है, वह आत्मा है। जो आत्मा है, वह मोक्ष है। हम सभी मिलावटी जीवन जी रहे हैं। उसमें पुद्गल का भाग ज्यादा है, आत्मा का भाग कम है। हमारे शरीर में आत्मा का स्थान बहुत थोड़ा है। सारा स्थान पुद्गल ने घेर रखा है। उसका अधिकार बना हुआ है। दर्शन के क्षेत्र में यह प्रश्न बहुत चर्चित रहा-आत्मा कहां है? आत्मा का स्थान कहां है? इस प्रश्न के संदर्भ में अनेक विचार प्रस्तुत हुए। जैन दर्शन ने आत्मा को शरीर परिमाण-शरीरव्यापी माना। किसी दर्शन ने उसे व्यापक माना और किसी दर्शन ने उसे अंगुष्ठ जितना माना। जैन दर्शन ने जो शरीर-परिमाण की स्वीकृति दी, वह दूसरे दर्शनों में प्राप्त नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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