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________________ किसने कहा मन चंचल है? ४०१ पित्त का प्रकोप ज्यादा होता है। शरीर के किस भाग में वायु, पित्त या कफ का प्रकोप ज्यादा होता है। यदि यह जान लिया जाए तो मन को पकड़ने में बहुत सुविधा हो जाती है। यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है-ये तीनों दोष सम कैसे रहें? इन पर नियन्त्रण कैसे किया जाए? आयुर्वेद का सिद्धांत है-दोषाणां साम्यं आरोग्यम्-दोषों की का नाम है आरोग्य और विषमता का नाम है रोग। शरीर में दोष रहेंगे। यदि दोष नहीं रहेंगे तो शरीर भी नहीं रहेगा। ध्यान यही देना चाहिए-दोष का असंतुलन न हो। दिन का अन्तिम हिस्सा वायु-प्रधान माना जाता है, मध्यकाल को पित्तप्रधान और प्रातःकाल को कफप्रधान माना जाता है। किस समय में क्या करना चाहिए और किस समय मन की गति कैसी रहती हैं? यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन सारी बातों को सूक्ष्म मनीषा से समझा जाए तो मन की एकाग्रता को साधने में शीघ्र सफलता मिल जाती है। त्रिदोष और कर्म उपाध्याय मेघविजयजी ने इस विषय में एक और संगति को प्रस्तुत किया है-वायु-प्रकोप का संबंध है ज्ञानावरण कर्म के उदय से। जब वायु ज्यादा कुपित होता है तब वह शून्यता ला देता है, स्तब्धता और जड़ता ला देता है, ज्ञान के आवरण का हेतु बन जाता है। इसलिए जो व्यक्ति साठ से ऊपर चला जाता है, उसे बहुत सावधान रहना चाहिए-कहीं वायु का प्रकोप बढ़ न जाए, अन्यथा जड़ता, शून्यता, बुद्धि की मंदता, विस्मृति–इनका होना बहुत स्वाभाविक है। आयुर्वेद का यह विधान भी है--साठ वर्ष के बाद व्यक्ति को हमेशा सतर्क रहना चाहिए, वायु-शामक औषधियों का प्रयोग करना चाहिए, जिससे वायु उच्छृखल न बने, ज्यादा कुपित न हो, नियंत्रण में रहे। आयुष्य कर्म का संबंध पित्त के साथ जोड़ा गया। जब तक व्यक्ति का पित्त ठीक काम करता है तब तक जीवन है। जब पित्त ने काम करना बन्द कर दिया, जीवन की गति भी समाप्त होने लग जाती है। कफ का संबंध है नाम कर्म की प्रकृतियों के साथ। शरीर, यश, रूप आदि के साथ कफ की प्रकृति का योग माना गया है। जब वात, पित्त और कफ-तीनों का प्राबल्य होता है तब सन्निपात की सी स्थिति बनती है। इसका संबंध अन्तराय कर्म के साथ है। सारी शक्ति क्षीण हो जाती है ऐसी स्थिति में। जब तीनों ही प्रबल बन जाते हैं तब शक्ति कौनसी बच पाएगी? क्या सन्निपात में शक्तिशून्य नहीं हो जाता है आदमी? उस स्थिति में आदमी सोया रहता है, जीवन के दिन गिनता रहता है, मौत उसके सामने मंडराती रहती है। यह शरीर के दोष और कर्म के संबंध की एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। कार्य किसी का, श्रेय किसी को शरीर के दोष, दिन और रात्रि का समय, कर्म का विपाक, कर्म विपाक से होने वाले भाव-ये सारे तत्त्व हैं, जो मन को प्रभावित करते हैं। हम इन सबका भार मन पर डाल देते हैं। इन सबके स्थान पर मन को बिठा देते हैं। उत्तरदायी कोई दूसरा है और वजन किसी दूसरे पर डालें तो काम कैसे चलेगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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