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________________ ३६० महावीर का पुनर्जन्म पर सीधी नहीं जाती, टेढ़े-मेढ़े मार्ग से जाती है। जिन या केवली की आंख सीधे अस्तित्व तक पहुंचती है। उसकी दृष्टि पर्याय को पार कर मूल द्रव्य तक पहुंचती है, अव्यक्त और अदृश्य जगत तक पहुंचती है। कहा गया जया सव्वत्तगं नाणं, दसणं चाभिगच्छई। तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली।। जो सर्वत्रग ज्ञान और दर्शन को प्राप्त कर लेता है, वह केवली लोक और अलोक-दोनों को जान लेता है। केवली दृश्य लोक को भी देखता है अदृश्य लोक को भी देखता है, अलोक को भी देखता है। जो दिखता है, उसे भी जान लेता है। जहां आकाश के सिवाय कुछ भी नहीं है, उसे भी जान लेता है। आधार और आधेय हम इस संसार में रह रहे हैं। रहने के लिए कोई आधार चाहिए। घड़े में पानी रहता है। पानी आधेय है, घड़ा आधार है। यह तर्कशास्त्र का एक नियम बन गया, आधेय और आधार का सिद्धान्त निर्मित हो गया। एक तर्कशास्त्री पात्र में घी लिए जा रहा था। उसके मन में प्रश्न उठा-घी का आधार पात्र है या पात्र का आधार घृत-घृताधारं पात्रं वा पात्राधारं घृतं? उसने परीक्षा करने के लिए पात्र को उलटा किया। घी नीचे गिर गया। निश्चय हो गया-घी का आधार पात्र है। घी आधेय है, पात्र आधार है। हमारे मन में भी प्रश्न उठ सकता है-हम कहां रह रहे है? आधार क्या है? इस प्रश्न की गहराई में जाकर एक अस्तित्व को खोजा गया। उसका नाम है आकाश। आकाश एक ऐसा तत्व है, जिसमें देने की क्षमता है। वह एक ऐसा अस्तिकाय है, अस्तित्व है, जिसमें सारा संसार समाया हुआ है। भारतीय दर्शनों ने आकाश के बारे में व्यापक विमर्श किया और उसे मान्यता दी। आधार तत्त्व है आकाश जैन दर्शन ने इससे आगे एक बात प्रस्तुत की। उसने लोक और अलोक की व्यवस्था दी। एक आकाश ऐसा है, जहां सब कुछ है और एक आकाश ऐसा है, जहां कुछ भी नहीं है, केवल आकाश है। लोकाकाश में हम रह सकते हैं। वह सबको समा सकता है किन्तु उसका अस्तित्व बना रहेगा। उसका अस्तित्व किसी की अपेक्षा से नहीं है। उसका अस्तित्व निरपेक्ष होता है। आकाश का अस्तित्व दूसरे पर आधारित नहीं है। उसका अपने आप में अस्तित्व है, दूसरा कोई है या नहीं। लोकाकाश वह आकाश है, जहां आकाश भी है, दूसरे पदार्थ भी हैं। जहां केवल आकाश है, और कोई पदार्थ नहीं है, वह अलोकाकाश है। हम अनुमान के द्वारा आकाश की कल्पना कर रहे हैं। आकाश हमें दिखाई नहीं दे रहा है। हमें जितना जगत दिखाई दे रहा है, वह आकाश में है किन्तु आकाश चर्मचक्षु का विषय नहीं बनता। उसको हम तर्क के बल पर स्वीकार किए हुए हैं। सम्पूर्ण जगत का कोई आधार तत्त्व है और वह आकाश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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