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________________ ५८ अस्तित्वाद ___ व्याकरण की दृष्टि से 'मैं हूं' यह कहना सच हैं। किन्तु सत्य की दृष्टि से 'मैं है' यह कहना सच है। 'मैं हूं' यह एक अवस्था है। 'मैं है' यह एक सचाई है। 'है' सचाई है, 'हूं' सामयिक सचाई हो सकती है। मैं अभी हूं, नहीं भी हूं। मैं कभी किसी रूप में हूं, और कभी किसी रूप में हूं। अवस्था के साथ जुड़ना समय के साथ जुड़ना है, परिवर्तन के साथ जुड़ना है। जहां तक अस्तित्व का प्रश्न है वह परिवर्तन से आगे की बात है। सत्य त्रैकालिक होता है। 'है' यह त्रैकालिक सत्य है। जो देखने वाला है, वह सापेक्ष है। सत्य मूलतः निरपेक्ष है। हम जानें तो भी वह सत्य है, उसका अस्तित्व है। हम न जानें तो भी वह सत्य है, उसका अस्तित्व है। 'मैं है' उसका होना या न होना हमारे ज्ञान पर निर्भर नहीं है। एक पुस्तक है। प्रश्न होता है क्या वह मूल द्रव्य है, अस्तित्व है? उसे मूल द्रव्य नहीं कहा जा सकता। यदि पुस्तक मूल द्रव्य है तो सदा पुस्तक ही रहेगी। वह आज पुस्तक है। पचास वर्ष बाद वह क्या रूप लेगी, कहा नहीं जा सकता। इसलिए उसे मूल द्रव्य नहीं माना जा सकता। एक मनुष्य है। क्या वह मूल द्रव्य है? वह आज मनुष्य है किन्तु वह पचास वर्ष बाद क्या होगा, इसका पता नहीं है। इसलिए मनुष्य मूल द्रव्य नहीं है। जितना दृश्य जगत है, उसकी मीमांसा करें-क्या वह मूल द्रव्य है? अस्तित्व है? आज एक पेड़ है, एक पत्थर है, एक पशु है और एक मनुष्य है। कुछ समय बाद ये अपने रूप को छोड़ देंगे, दूसरे रूप में चले जाएंगे। इन्हें मूल द्रव्य नहीं कहा जा सकता। जरूरी है मूल द्रव्य की खोज हमारे सामने जितना दृश्य जगत है वह सारा का सारा पर्याय का जगत है, विकृति का जगत है। विकार का अर्थ है-पर्याय। सारे विकार हैं, पर्याय हैं। प्रश्न होता है-मूल क्या है? क्या दही मूल हैं? पहले दही कहां था-पहले वह दूध था। क्या दूध मूल है? दूध मूल नहीं है। गाय ने घास खाई, और कुछ पदार्थ खाए, दूध पैदा हो गया। क्या घास मूल है? पहले घास कहां थी? वह भी बाद मैं पैदा हुई है। प्रश्न फिर वही आता है-मूल क्या है? यह मूल्य द्रव्य की खोज अस्तित्व की खोज है। आज के वैज्ञानिक मूल कण की खोज में लगे हुए हैं। मूल को खोजना अस्तित्व को खोजना है। हम लोग पर्याय जगत को जान रहे हैं। मूल द्रव्य की ओर ध्यान केन्द्रित नहीं है। मूल द्रव्य की खोज बहुत जरूरी है। यद्यपि मूल द्रव्य निरपेक्ष है, पर उसे समझना जरूरी है। मूल को समझने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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