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भोगी भटकता है
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कहा- 'सर! घरवाली खो गई।' कक्षा के सारे विद्यार्थी हंस पड़े । अध्यापक भी हंसने लगा। वह बेचारा हैरान था कि इसमें हंरुने जैसा क्या था। उसने कहा - 'सर ! मेरी तो घरवाली खो गई और आप सब हंस रहे हैं?' अध्यापक बोला—'अरे! अभी तो तुम कुंआरे हो, घरवाली कहां से आ टपकी ?” उसने कहा- 'मेरी घरवाली पेंसिल खो गई है।' बात स्पष्ट हो गई ।
अधूरी बात से उपहास का पात्र बनना ही होता है ।
धार्मिक लोग भी प्रक्रिया को पूर्ण नहीं करते। अधूरी प्रक्रिया कहीं नहीं
पहुंचाती ।
जिन व्यक्तियों ने इन तीनों सूत्रों का अभ्यास किया है, उनका अनुभव जगा है और आज भी जाग सकता है।
भोग और त्याग — ये दो बातें हैं । भोग जितना लुभावना है, त्याग उतना लुभावना नहीं है। त्याग कहें या वैराग्य, एक ही बात है । भोग से त्याग या वैराग्य की ओर जाना इतना सरल नहीं है। इसमें वैचारिक द्वन्द्व भी है, दर्शन भी स्पष्ट नहीं है ।
भोग : दो प्रक्रियाएं
साधना के क्षेत्र में दो प्रक्रियाएं हैं- राजयोग की प्रक्रिया और हठयोग की प्रक्रिया। दोनों भिन्न हैं । राजयोग का प्रारंभ होता है वैराग्य से । चाहे पतंजलि का अष्टांग योग हो, चाहे जैनों का संवरयोग या तपोयोग हो और चाहे बौद्धों का शीलयोग हो - सभी का आधार वैराग्य है । इन सबमें कहा गया है कि जब तक साधक यम, नियम और शील की आराधना नहीं करता, महाव्रत या व्रत की आराधना नहीं करता, त्याग की दिशा में जा नहीं सकता । हठयोग का पहला तत्त्व है आसन । वहां यम, नियम नहीं है, वैराग्य की बात नहीं है। इसमें यम, नियम को छोड़कर छह अंग माने गए हैं और राजयोग में आठ अंग । हठयोग के मार्ग में ही तंत्रयोग का विकास हुआ। यह मार्ग सर्वथा भिन्न हो गया । यह निश्चित है कि जिस साधना पद्धति के साथ वैराग्य की बात नहीं जुड़ती, वह पद्धति बहुत काम की नहीं होती। उसमें भोग की वृद्धि भी हो जाती है । वह मानसिक और भावनात्मक स्तर पर बहुत हानि पहुंचाती है। शारीरिक दृष्टि से भी हानि कर होती है।
योग का मार्ग अध्यात्म का मार्ग है, पवित्र मार्ग है। इसमें अलौकिकता की बात समाविष्ट थी पर इसमें भी लौकिक बातों का समावेश हो गया है । इसको नितांत लौकिक बना दिया गया, शरीर पर अटका दिया गया। आज का 'योगा' सौन्दर्य और शारीरिक स्वास्थ्य तक सीमित हो गया। उसमें अध्यात्म की बात नहीं है। जब योग जैसी पवित्र वस्तु को इस भूमिका पर ला दिया गया तो फिर 'योगा' और 'अयोगा' में अन्तर ही क्या रहा?
आज सचमुच दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है। विजयघोष ने कहा - 'केवल पदार्थ को ही मत छोड़ो। भोग केवल पदार्थ ही नहीं है।' यह तथ्य धार्मिक लोगों को भी समझना है कि केवल पदार्थ को काम में लेना ही भोग नहीं है । पदार्थ को काम में लेना भोग है तो उसके प्रति भावना को जोड़ना भी भोग
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