________________
५४
भोगी भटकता है
एक साधक बहुत वर्षों से साधना कर रहा था। एक दिन वह गुरु के पास जाकर बोला-'गुरुदेव! लंबे समय से साधनारत हूं, पर अभी तक मैं कही हुई,सुनी हुई, पढ़ी हुई बात ही दोहरा रहा हूं। अनुभव अभी तक नहीं जागा है। वह कब जागेगा ?'
गुरु बोले- 'देखो, केवल रूढिगत साधना करते रहने से अनुभव नहीं जागता। उसको जगाने की एक पूर्ण प्रक्रिया है। जब तक साधक इस प्रक्रिया से नहीं गुजरता, उस प्रक्रिया को पूरा नहीं जीता, तब तक अनुभव नहीं जागता।'
'गुरुदेव ! वह प्रक्रिया क्या है?'
'वत्स ! अनुभव तब जागता है जब ये तीन बातें क्रियान्वित होती हैं। पहली है-अकरण का संकल्प। भोग न भोगना एक बात है परंतु भोग न भोगने का संकल्प करना, अकरण का संकल्प करना दूसरी बात है। एक आदमी मिठाई नहीं खाता क्योंकि वह सुगर का मरीज है और डॉक्टर ने मिठाई खाने का वर्जन किया है। उसने मिठाई का भोग छोड़ दिया। यह व्यवहार की बात है। अध्यात्म उससे आगे है। व्यवहार शरीर से जुड़ी प्रक्रिया है। जब उसके साथ संकल्प की कड़ी जुड़ती है तब वह अध्यात्म बन जाती है। जब भोग के साथ आंतरिक संकल्प जुड़ जाता है कि मुझे यह नहीं करना है, तब वह व्यावहारिक न रहकर आध्यात्मिक प्रक्रिया बन जाती है।
भोग न भोगना-इसका भी अपना एक मूल्य है, पर वह छोटा। जब उसके साथ संकल्प जुड़ जाता है, अकरण की बात जुड़ जाती है, तब वह अत्यन्त मूल्यवान हो जाता है। यही अध्यात्म है।
बीमारी के लिए छोड़ना, एक बात है, पर आत्मशुद्धि के लिए ‘अकरण' करना दूसरी बात है। यह उदात्तीकरण की प्रक्रिया है। संकल्प को जोड़ने से क्रिया का स्वरूप बदल जाएगा।
दो व्यक्ति हैं। एक धर्म को समझता है और दूसरा धर्म को नहीं समझता। दोनों आसन, प्राणायाम करते हैं, परंतु दोनों के लक्ष्य की भिन्नता है। धर्म को नहीं जानने वाला आसन-प्राणायाम शारीरिक स्वास्थ्य के लिए करता है और धर्म को जानने वाला कर्म-निर्जरा के लिए, संस्कारों के परिष्कार के लिए आसन-प्राणायाम करता है। क्रिया दोनों एक ही करतें है, पर लक्ष्य की भिन्नता के कारण क्रिया की परिणति भिन्न-भिन्न हो जाती है।
___ आचार्य भिक्षु ने एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा-'पुण्य के लिए कोई साधना मत करो। आत्मशुद्धि के लिए धर्म की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org