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महावीर का पुनर्जन्म कभी पकड़ में नहीं आती। व्यक्ति क्या कहना चाहता है, हम कभी पकड़ नहीं पाते इसीलिए किसी व्यक्ति के साथ न्याय नहीं होता। भाषा कभी न्याय नहीं करती। मुनि बुद्धमल्लजी ने भाव और भाषा के द्वन्द्व का यथार्थ चित्रण किया है-भाषा क्या है? भावों का लंगडाता सा अनुवाद। भाव और भाषा की दूरी
भाषा भावों का कभी पूरा प्रतिनिधित्व कर नहीं सकती और यही संघर्ष का कारण बनता है। वही भाषा जब पत्र में लिखी जाती है तब और अधिक अनर्थ हो जाता है। भाव और भाषा में दूरी होती है और परस्पर पत्राचार चलता है, इसका अर्थ है-लड़ाई का एक गढ़ बनाना, किला खड़ा कर देना। एक व्यक्ति ने पत्र दिया। दूसरे ने उसका उत्तर दिया। फिर तीसरे ने उत्तर दिया
और लड़ाई आगे बढ़ती चली गई। कई बार समस्या सुलझने के बजाय उलझ जाती है। यदि पत्राचार को छोड़, आमने-सामने बैठकर बात की जाए तो समाधान निकल आए। जब दो व्यक्ति मिलते हैं, एक-दूसरे की भाषा को ही नहीं, भावों को भी पढते हैं। संघर्ष तब मिटता है, जब व्यक्ति भाव से भाव को पढ़ना सीख जाए। जहां भाषा समाप्त हो जाए, मौन बन जाए, वहां समाधान मिलता है। शायद इसीलिए कहा गया-जहां गुरु बोलता है, वहीं संशय का छेद नहीं होता। जहाँ गुरु मौन होता है, वहां संशय छिन्न हो जाता है-गुरोस्तु मौनमाख्यानं शिष्यास्त छिन्नसंशयाः। भाषा के साथ संघर्ष का बीज जुड़ा रहता है।
सम्राट श्रेणिक उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए आया। उसने देखा-एक पेड़ के नीचे युवा मुनि खड़ा है। उसका सौन्दर्य जैसे बाहर झांक रहा था। श्रेणिक यह देख आश्चर्य से भर गया। यह क्या ? उससे रहा नहीं गया। सम्राट मुनि की सन्निधि में आया, प्रणाम कर बोला-भंते! आप तरुण हैं। अभी आप दीक्षित हो गए? अभी तो भोग भोगने की अवस्था है। यह आपने क्या किया?'
मुनि ने ध्यान-मुद्रा को सम्पन्न किया। मुनि बोले-'भैया! क्या करूं। 'मैं अनाथ था इसलिए मुनि बन गया।'
'भंते! ऐसा नहीं लगता कि आप अनाथ हैं। आपका यह यौवन, आपका यह रूप, आपकी यह सम्पदा बतला रही है कि आप बहुत सम्पन्न परिवार के हैं, अनाथ तो नहीं हैं।'
‘राजन ! मैं अनाथ ही हूं और इसीलिए मैं मुनि बना हूं।'
राजा ने मुनि की भाषा को सुना पर उसका अर्थ नहीं समझा, भाव नहीं समझा। भाव और भाषा के बीच दूरी रह गई।
सम्राट ने कहा- 'भंते! आज मैं आपका नाथ बनता हूं। आप अनाथ थे इसलिए मुनि बने, लेकिन अब अनाथ नहीं हैं। आप मेरे महलों में चलें, आराम से रहें। मेरे पास सुख-सम्पदा की कोई कमी नहीं है।'
राजा की यह भाषा मुनि को मान्य नहीं हुई। मुनि बोले-'भाई! तुम स्वयं अनाथ हो, मेरे नाथ कैसे बनोगे?'
यही है भाव और भाषा का टकराव। यह संघर्ष बहुत चलता है। इस संदर्भ में भाव प्रेक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण है। हम भाषा की पृष्ठभूमि को जानने के Jain Education International For Private & Personal Use Only
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