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महावीर का पुनर्जन्म माता-पिता ने सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी- 'वत्स! तुम्हारी जैसी इच्छा है, वैसा करो।'
मिगचारियं चरिस्सामि, एवं पुत्ता! जहासुहं।
अम्मापिऊहिं अणुन्नाओ, जहाय उवहिं तओ।। माता-पिता ने कितनी स्वतन्त्रता दी और मृगापुत्र ने कितनी विनम्रता से स्वीकृति ली। वस्तुतः ये दोनों बातें दिशा-दर्शक हैं। मृगापुत्र का यह प्रसंग दीक्षा देने वाले के लिए, दीक्षा लेने वाले के लिए और दीक्षा की प्रेरणा देने वाले के लिए भी मननीय है। यदि इसका सम्यग् मनन किया जाए तो एक स्वस्थ प्रणाली उपज सकती है।
मृगापुत्र ने मुनि धर्म का जो पालन किया है, वह उसके उदात्त चरित्र का प्रमाण है। मृगापुत्र ममत्व रहित, अहंकार रहित, निर्लेप, गौरव को त्यागने वाला और सब स्थितियों में समभाव की साधना करने वाला बन गया। वह लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान, जीवन-मरण-सबमें सम बन गया।
निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो। समो य सव्व भूएसु, तसेसु थावरेसु य ।। लाभालाभे सहे दुक्खे. जीविए मरणे तहा।
समो निंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ।। बहुत कठिन है इन परिस्थितयों मे सम रहना। जिस व्यक्ति की आंतरिक चेतना जाग जाती है, प्रज्ञा जाग जाती है, वही इन स्थितियों में सम रह सकता है। जिसकी प्रज्ञा स्थित हो जाती है, वही इस प्रकार का जीवन जी सकता है।
- मृगापुत्र समत्व की उत्कृष्ट भूमिका में चला गया। जातिस्मृति से वैराग्य और समता का प्रारम्भ हुआ और वह पूर्णता की अनुभूति में बदल गया। इसके बीच अनेक उतार-चढ़ाव आए, बाधाएं आई, भय और प्रलोभन आए लेकिन मृगापुत्र को ये स्थितियां छू ही नहीं पाई। इसका कारण था-मृगापुत्र ने भावना योग से अपने आपको भावित कर लिया। कोरी एकाग्रता या ध्यान उतना काम का नहीं होता, जितना वह भावना से जुड़कर बनता है। ध्यान शतक में साधक की बहुत सुन्दर अर्हता दी गई है जो भावना से प्रभावित है, वह ध्यान का अधिकारी है। ज्ञान-भावना, दर्शन-भावना, चरित्र-भावना, वैराग्य-भावना-ये भावनाएं जिसके पुष्ट बन गई, वस्तुतः ध्यान करने का अधिकारी वही है। मृगापुत्र ने इन भावनाओं से अपने आपको भावित कर लिया और उसने वह उपलब्ध कर लिया, जिसके लिए संकल्पबद्ध बना था
एवं नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य।
भावनाहिं य सुद्धाहिं, सम्मं भावेत्तु अप्पयं।। मृगापुत्र का यह प्रकरण प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रेरक है। यदि हम अतीत में लौटने का प्रयत्न करें तो अतीत और भविष्य-दोनों उज्ज्वल हो सकते हैं। हमारे हाथ में वह सूत्र आ सकता है, जो वर्तमान का मार्ग-दीप बन जाए,
भविष्य का आलोक-स्तंभ बन जाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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