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________________ अचिकित्सा ही चिकित्सा २६३ से कहा- 'तात! आप चिन्ता न करें । मैं धर्म की साधना करूंगा। मुझे संयम और तप-ये दो साधन मिल गए हैं।' संयम और तप-ये दो चिकित्सा के सूत्र हैं । जो व्यक्ति संयम और तप के द्वारा अपनी चिकित्सा का सूत्र पा लेता है, वह अनेक मानसिक स्थितियों को सुलझा लेता है, शारीरिक दुविधाओं को मिटा लेता है । असंयम और अतप से अनेक समस्याएं पैदा होती हैं। आज अध्यात्म का समाधान मान्य और प्रतिष्ठित होता चला जा रहा है । आज विज्ञान भी इसी भाषा में बोल रहा है ! विज्ञान का क्षेत्र केवल औषध पर निर्भर नहीं है। प्रश्न आया इतनी तेज दवाइयां दी जा रही हैं, उनसे जीवनी-शक्ति नष्ट हो रही है। दवा की प्रतिक्रिया हो रही है। इस स्थिति में खोज चली-ऐसा भी कोई उपाय है, जिससे रोग भी मिट जाए और इन भयंकर औषधियों से पिण्ड छुड़ाया जा सके। इस संदर्भ में ये सारे विकल्प सुझाए जा रहे हैं। पहले किसी भी हॉस्पिटल में आसन नहीं कराए जाते थे लेकिन आज आसन, प्राणायाम और ध्यान के प्रयोग भी कराए जा रहे हैं। यह सारा विकल्प की खोज का परिणाम है । हम केवल बाहर ही बाहर न खोजें, अपने भीतर भी खोजें। हमारा क्रम क्या होना चाहिए? हमारी जीवन शैली क्या होनी चाहिए? हम किस भाषा में सोचें ? मृगापुत्र की भाषा है - 'पशु या हरिण की तरह जंगल में रहूंगा और बीमार पड़ने पर चिकित्सा नहीं करूंगा।' प्रत्येक व्यक्ति इस भाषा में नहीं सोच सकता। वह इस भाषा में सोचे या चिकित्सा की भाषा में? सबसे पहला विकल्प यही होना चाहिए - चिकित्सा न कराऊं । यदि यह संभव नहीं है तो फिर दूसरा विकल्प यह होना चाहिए-अपनी चिकित्सा मैं स्वयं करूं । यदि वह आसन, उपवास या लंघन से संभव है तो उसका प्रयोग करूं । जप के द्वारा चिकित्सा करूं। जप भी चिकित्सा की एक प्रणाली है । प्राचीन जैन आचार्यों ने लिखा- 'अर्हम् का जप करने वाला अग्निमांद्य, श्वास आदि अनेक बीमारियों का समाधान कर लेता है ।' तीसरा विकल्प है— वैद्य या डाक्टर को दिखाऊं । विधान किया गया- पहले उपवास से चिकित्सा करे । उससे सम्भव न हो तो वैद्य या डाक्टर को दिखाए, दवा ले । यह भी बताया गया - वैद्य के पास कैसे जाएं, कैसे दिखाएं, वैद्य जो औषध बताए, उसका सेवन कैसे करें। दवा में भी हम विवेक का सहारा लें। हम यह सोचें दवा लेना आवश्यक है पर यदि सामान्य औषध से काम हो जाए तो तेज दवा न लें। यदि आयुर्वेदिक दवा से समाधान होता हो तो तेज डाक्टरी दवा न लें। कुशल योद्धा अन्तिम हथियार का उपयोग कभी पहले क्षण में नहीं करता। हम अन्तिम विकल्प को पहला विकल्प न बनाएं। संकल्प मृगचर्या का मृगापुत्र ने अत्यन्त विनम्रता के साथ माता-पिता से निवेदन किया- 'मैं संयम और तप के द्वारा चिकित्सा करूंगा । इसलिए आप मुझे मृगचारिका की अनुमति दें।' माता-पिता ने सोचा मृगापुत्र ! अपने संकल्प पर दृढ़ है! इसे अनुमति देना ही श्रेयस्कर है । न यह रुकने वाला है और न इसे रोकना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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