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________________ पथ और पाथेय २५७ भी प्रत्यारोपण किया जा सकता है? धर्म कोई प्रत्यारोपण का तत्त्व नहीं है, वह ध्रुव, नियत और शाश्वत है। वह है आत्मा की पवित्रता, वीतरागता। जैन दर्शन में धर्म पर विचार किया गया। पहला बिन्दु धर्म का अन्तिम बिन्दु है, दोनों के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। पहला बिन्दु है एक बूंदी वीतरागता और अन्तिम स्वरूप है पूरा लड्डू वीतरागता। बूंदी का भी वही स्वाद है और लड्डू का भी वही मिठास है। आकार छोटा-बड़ा है पर उसका महत्त्व नहीं है। महत्त्व है स्वरूप का। भगवान महावीर ने जो धर्म का स्वरूप बताया, उसका प्रथम बिन्दु है-वीतरागता और उसका अन्तिम बिन्दु भी है-वीतरागता। मात्रा का भेद तो हो सकता है, स्वरूप में अन्तर नहीं आ सकता। ये चार वर्गीकरण हमारे सामने हैं१. द्रव्यानुयोग - दार्शनिक दृष्टि २. चरणकरणानुयोग - आचारशास्त्रीय दृष्टि ३. गणितानुयोग - विस्तार दृष्टि ४. धर्मकथानुयोग - घटनापरक दृष्टि, जीवन परक दृष्टिकोण। इन सारी दृष्टियों की मीमांसा करने पर धर्म का जो निखरा हुआ रूप हमारे सामने आएगा, वह बिल्कुल अलौकिक होगा। मृगापुत्र ने कहा-'माता-पिता! अब आप क्यों देरी कर रहे हैं? आपकी कृपा से मुझे जातिस्मृति हो गई है। मैं पूर्व-जन्मों को साक्षात् कर रहा हूं, मेरी दृष्टि पारदर्शी हो गई है। उसका जो निर्णय है उसे आप बदल नहीं सकते।' मृगापुत्र का यह स्वर उसके अटल निश्चय को अभिव्यक्त कर रहा था। जब व्यक्ति किसी निश्चय पर पहुंच जाता है तब कोई भी शक्ति उसे विचलित नहीं कर सकती। उसका निश्चय स्पष्ट था, पथ स्पष्ट था और पाथेय उसे प्राप्त था। इस स्थिति में माता-पिता के सामने उसको स्वीकृति देने के सिवाय विकल्प ही नहीं था, लेकिन वे स्वीकृति देने से पूर्व एक परीक्षण और करना चाहते थे। मृगापुत्र उसके लिए भी प्रस्तुत था। उसका जो परिणाम आएगा, वह प्रेय ही नहीं, श्रेय भी होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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