SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संबंधों के आलोक में गुरु और शिष्य एक व्यक्ति के मन में वैराग्य जागा। वह गुरु के पास गया और दीक्षित हो गया। पर जो होना चाहिए था वह नहीं हुआ। मास बीत गया, दो मास बीते, छह मास बीत गए। एक दिन वह उदास बैठा था। स्थविर ने पूछा-'देवानुप्रिय! तुम उदास क्यों हो?' उसने सोचा-कहूं तो क्या कहूं। न कहूं तो क्या करूं? बात ही कुछ ऐसी हो गई है। मैं गुरु के पास दीक्षित तो हो गया पर गुरु मेरी पकड़ में नहीं आ रहे हैं, गुरु के साथ मेरा सम्बन्ध स्थापित नहीं हो रहा है। जिसके सहारे आए, उसके साथ संबंध स्थापित न हो, यह शायद सबसे बड़ी बाधा है। जिसके आश्रय में जीना और उसके साथ संबंध न होना, सचमुच एक समस्या बन जाती है। उसने अपने मन की सारी बात स्थविर के सामने रख दी। . स्थविर का काम होता है स्थिरीकरण। स्थिर करना, समस्या का समाधान देना, कुंठा, निराशा को मिटाना, उदासी को समाप्त करना। स्थविर ने कहा-'देवानुप्रिय! वास्तव में तुम सम्बन्ध स्थापित करना जानते ही नहीं हो। गुरु के साथ कब सम्बन्ध स्थापित होता है और कैसे होता है? मैं तुम्हें इसके कुछ गुर बताता हूं। तुम इनका उपयोग करो। तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी। 'भंते! कृपा कर आप बताएं, आपका बड़ा अनुग्रह होगा।' स्थविर ने कुछ गुर बताते हुए कहा आज्ञानिर्देशकारित्वं, संबध्नाति गुरोर्मतिम। प्रीतिर्विनम्रता सेवा, कृतज्ञभावविश्रुतिः।। गुरु के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के पांच गुर है१. आज्ञा का अतिक्रमण न करना ४. सेवा करना २. प्रीति करना ५. कृतज्ञ बने रहना। ३. विनम्रता रखना पहला गुर है-गुरु की आज्ञा का अतिक्रमण मत करो, उसकी उपेक्षा और अवहेलना मत करो। अपने आप तुम्हारा संबंध स्थापित हो जाएगा, तुम गुरु से जुड़ जाओगे, गुरु कभी तुम्हारी उपेक्षा नहीं कर सकेंगे। प्रीति का निदर्शन दूसरा गुर है-गुरु के साथ प्रीति करो। उनके साथ भक्ति, प्रीति, आस्था या श्रद्धा करो। प्रीति का होना बहुत जरूरी है। यह बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है। प्रश्न किया गया-श्रावक कैसा होता है? शिष्य कैसा होता है? उत्तर दिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy