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याद पिछले जन्म की
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मिला, पूर्वजन्म की स्मृति उभर आई। महर्षि पतंजलि ने भी यही कहा- जब संस्कार का साक्षात्कार होता है, तब पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है। अनुप्रेक्षा का प्रयोग धारणा को पुष्ट करने का प्रयोग है । अभय की अनुप्रेक्षा करेंगे तो अभय का भाव पुष्ट होता चला जाएगा । अभय की धारणा बनती चली जाएगी, भय की धारणा क्षीण हो जाएगी। जब तक अभय की भावना पुष्ट नहीं होगी, भय के भाव क्षीण नहीं होंगे। एक घड़ा, जो अभी आवे से निकला है, हमें उसे गीला करना है । वह पानी की एक-दो बूंद डालने से कभी गीला नहीं होगा । उस पर पानी की बूंदे गिरती रहेगी तो एक क्षण ऐसा आएगा, घड़ा गीला हो जाएगा। गर्म एवं शुष्क घड़े को भिगोने की एक प्रक्रिया है । घड़े पर एक-एक बूंद डालते चले जाएं, घड़ा आर्द्र हो जाएगा।
जाति - स्मृति का हेतु
हम नियम और प्रक्रिया को महत्त्व दें। हर बात की एक प्रक्रिया होती है। प्रक्रिया सही होती है तो कार्य में सफलता मिल जाती है । मृगापुत्र ने ठीक प्रक्रिया को अपनाया, वह सम्मोहित हो गया। उस अवस्था में जाति स्मृति ज्ञान उपलब्ध हो गया। उसने देखा- मैं पूर्वजन्म में ऐसा ही मुनि था, मैंने ऐसी ही साधना की थी । जाति-स्मृति होते ही आदमी की स्थिति बदल जाती है। यदि गहरा विपाक न हो तो व्यक्ति में रूपान्तरण घटित हो जाता है । यद्यपि जाति-स्मृति ज्ञान का संबंध है ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से किन्तु साथ में मोहनीय कर्म का भी गहरा संबंध है । भाष्य साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण गाथा हैं—
जायमाणस्स जं दुक्ख,
मरमाणस्स वा पुणो । तेण दुक्खेण संमूढो, जाइ सरइ न अप्पणी ।।
जन्म के समय भी दुःख होता है और मरण के समय भी दुःख होता है । यह यंत्रों से मापा जाने वाला दुःख नहीं है। हम यह साक्षात देखते है-जब सारा के कण-कण में, कोशिका - कोशिका में गुत्थमगुत्था हुआ प्राण, उनके साथ एकमेक जैसा बना हुआ प्राण निकलता है तब उसे निकलने में कितना कष्ट होता है । आकस्मिक निकले या प्रेरणा से, किंतु संबंध विच्छिन्न करने में क्या कठिनाई नहीं होती? अत्यंत वेदना होती है? उस समय अत्यंत वेदना होती है पर उसे यंत्रों से मापा नहीं जा सकता । दुःख मूढ़ता या मूर्च्छा पैदा करता है। मरते समय भी आदमी मूर्च्छा में चला जाता है। शरीरशास्त्र का नियम है— जब तक कष्ट सहने करने की स्थिति है, आदमी जागता रहता है और जब कष्ट को सहने की शक्ति नहीं रहती है तब व्यक्ति मूर्च्छा या बेहोशी में चला जाता है । जब तक मूढ़ता रही है, दुःख सघन रहता है । मूर्च्छा के चक्रव्यूह को तोड़े बिना पूर्वजन्म की स्मृति नहीं हो सकती । पूर्वजन्म की स्मृति के लिए मूर्च्छा को तोड़ना जरूरी है । प्रस्तुत प्रसंग में मोहनीय कर्म का तात्पर्य यही है- जो प्रबल मूर्च्छा स्मृति में व्यवधान डाल रही है, वह टूट जाए।
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