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महावीर का पुनर्जन्म
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लड़का भी यहीं है। पिता से रहा नहीं गया, उसने अपने पुत्रों से पूछा - 'दुकान पर कौन है?' बड़ा लड़का बोला- 'पिताजी! दुकान पर कोई नहीं है । 'बेवकूफों ! तुम सब यहां बैठे क्या करोगे, दुकान पर जाओ।' यह कहते-कहते पिता के प्राण पखेरू उड़ गए।
अंतिम सांस तक घर का मोह नहीं छूटता। यह अत्यन्त लिप्तता का जीवन अच्छा जीवन नहीं है। यह न जीने की कला है और न मरने की कला है ।
हम जीवन की शैली को बदलें, अपनी शांति के लिए बदलें । त्याग केवल अपनी शांति के लिए होता है, वह किया नहीं जाता। जो व्यक्ति यह निश्चय कर लेता है - मुझे शांति का जीवन जीना है, वह स्वतः त्याग में चला जाता है। त्याग का अर्थ केवल खाना छोड़ना नहीं है। त्याग का एक अर्थ यह भी है- मैं अधिकतम मौन रहूंगा। जितना बोलना आवश्यक होगा, उतना ही बोलूंगा। मैं शरीर की भी अनावश्यक प्रवृत्ति नहीं करूंगा। मन का संयम, शरीर और वाणी का संयम - यह त्याग का व्यापक संदर्भ है। मुनि बन जाना कोई अन्तिम बात नहीं है। मुनि बनना साधना के मार्ग को स्वीकार करना है, मंजिल बहुत दूर है । जैसे-जैसे वृद्धता आए वैसे-वैसे वैराग्य बढ़ता जाए तो शांति और समाधि बढ़ेगी । शांति और समाधि देना किसी दूसरे के हाथ में नहीं है। शांति और अशांति का, समाधि और असमाधि का निमित्त दूसरा बन सकता है पर उपादान व्यक्ति स्वयं है । हम इस सूत्र को हृदयंगम करें - जिस मूर्च्छा के वातावरण में पले-बढ़ें, उसी वातावरण में मरना मूर्खता है। यह बात समझ में आए तो जीवन और मृत्यु का रहस्य पकड़ में आ जाए। जो इनके रहस्य को जान लेगा, वह सारी कलाओं का पारगामी बन जाएगा। प्राचीन राजर्षियों की जीवन-चर्या के विश्लेषण से इसी सचाई का अनावरण होता है ।
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