________________
ब्रह्मचर्य के साधक-बाधक तत्त्व
२११
सार यही जीवन का। बने हो क्यों योगिराज! उचित नहीं महाराज! आलंबन सहित करो। निराशा का आवरण दूर करो याद करो याद करो
पुनः सहवास करो। वेश्या का यह भावपूर्ण अनुरोध भी स्थूलभद्र के संकल्प को हिला नहीं सका। जिस कोशा वेश्या के साथ स्थूलभद्र बारह वर्ष तक रहे, भोगों में डूबे रहे, वह वेश्या स्थूलभद्र के संकल्प के समक्ष पराजित हो गई। किसे बाधक तत्त्व कहा जाए और किसे साधक तत्त्व? जरूरी हैं नियम
हम इस सचाई को समझें-जब तक मनोबल का विकास नहीं होता तब तक निमित्तों पर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है। जो इन पर ध्यान नहीं देता, उसके लिए विचलन या स्खलन होना अनिवार्य है। जब मनोबल का विकास हो
ता है तब नियम बदल जाते हैं। हम नियम और व्यवस्था को पकड़ कर न बैठ जाएं। नियम जरूरी हैं पर जब व्यक्ति एक भूमिका को पार कर जाता है तब वे नियम कृतकृत्य हो जाते हैं। जब साधक सिद्ध हो जाता है, साधकत्व उपलब्ध हो जाता है तब नियम गौण बन जाते हैं। जब तक साधकत्व प्रबल नहीं है तब तक निमित्त बलवान बना रहेगा। एक बलवान बनता है तो दूसरा निष्क्रिय बन जाता है। जब उपादान बलवान होता है तब निमित्त गौण हो जाता है और जब निमित्त बलवान होता है तब उपादान गौण हो जाता है।
ऐसी कितनी घटनाएं हैं। सुदर्शन सेट की घटना को देखें। महारानी उसे विचलित करना चाहती है किन्तु सुदर्शन अडिग है। आचार्य भिक्षु ने इस घटना का बहुत सुन्दर चित्रण किया है। विजय सेट और विजया सेठानी की घटना को पढ़ें। वर्तमान में देखें तो महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य के संदर्भ में बड़े विचित्र प्रयोग किए। आचार्य कृपलानी ने लिखा-'गांधी ऐसे विचित्र प्रयोग कर रहे हैं। मेरा ऐसा विश्वास है कि मैं अगर गांधी को अनाचार करता हुआ देख भी लूं तो एक बार सोचूंगा--मेरी आंखें मुझे धोखा दे गई। वे ऐसा नहीं कर सकते। तेरापंथ समाज के वरिष्ट व्यक्ति थे सुगनचन्दजी आंचलिया। उनका मनोबल बहुत दृढ़ था। उन्होंने भी ब्रह्मचर्य के अनेक प्रयोग किए। उनकी धृति बहुत प्रशस्य थी। जो लोग ऐसी स्थिति में चले जाते हैं, उनके लिए निमित्त अकिंचित्कर बन जाते हैं। दूसरी ओर निमित्त की घटनाएं भी कम नहीं हैं। थोड़ा-सा निमित्त मिला, व्यक्ति मोम की तरह पिघल गया। दोनों प्रकार की घटनाएं हमारे सामने हैं। प्रश्न है-हम क्या करें? क्या ब्रह्मचर्य के जो दस स्थान बतलाए गए हैं, उनकी उपेक्षा करें? नहीं, उनकी उपेक्षा न करें। हम अभ्यास करें निमित्तों से उपादान की ओर
जाने का। जब तक अभ्यास परिपक्व न हो तब तक निमित्तों की उपेक्षा न करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org