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________________ दो भाइयों का मिलन १७६ वह संवाद बहुत मननीय है। उसमें कर्म की अनेक गुत्थियां सुलझाई गई हैं। आज कर्म के बारे में अनेक प्रश्न खड़े हो रहे हैं। एक प्रश्न है-धन किससे मिलता हैं? क्या वह पुण्य का फल है? वह पुण्य से मिलता है या नहीं? वैभव किससे मिलता है? एक बहुत सुखी है और एक दुःखी है। इसका कारण क्या है? ऐसे अनेक प्रश्न आज चर्चित हो रहे हैं। चित्र और संभूति इन्हीं प्रश्नों पर चर्चा कर रहे थे। चित्र कह रहा था-'तुमने क्या किया और क्या पाया?' संभूति कह रहा था-'तुमने क्या पाया और क्या खोया?' हमने सुख का फल भी भोगा है, दुःख का फल भी भोगा है। हमारा जन्म कर्म के अधीन है। वह सुखद हो या दुःखद। सात संवेदन या असात संवेदन की अनुभूति कृत-कर्म का परिपाक है कर्माधीनं भवेज्जन्म, सुखदं दुःखदं तथा। सातसंवेदनं तद्वद्, असातस्यापि वेदनम्।। सुख और दु:ख के विपाक की चर्चा कर्म-विपाक की चर्चा है। कर्म-विपाक की चर्चा किए बिना कोई व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं बन सकता। अध्यात्म की गहराई में जाने का एक महापथ है-कर्मशास्त्र। जो व्यक्ति कर्मशास्त्र को नहीं जानता, कर्मशास्त्र की गहराइयों में जाना नहीं चाहता, वह अध्यात्म की बात को सतही तौर पर ही पकड़ पाएगा। अध्यात्म में उसका अन्तःप्रवेश नहीं होगा। अध्यात्म की गहराई में जाने के लिए कर्म के रहस्यों को, कर्म के मर्म को समझना बहुत जरूरी है। आर्य-कर्म का उपदेश चित्र और संभूति ने कर्म-विपाक का विश्लेषण किया। पूर्वकृत कर्म, पुण्य का विपाक, पाप का विपाक आदि को देखा। मुनि चित्र ने कहा-'भाई! तुम याद करो। हमने अपने पूर्वजन्मों में क्या-क्या भोगा है? जब हम चांडाल थे तब हमारे साथ क्या-क्या बीता? आज तुम गर्व कर रहे हो कि पूर्वकृत कर्म के कारण मुझे यह सब मिला है।' चित्र का यह संबोधन सुनकर भी चक्रवर्ती की मूर्छा नहीं टूटी। मुनि चित्र ने उसकी मनःस्थिति को पढ़ा। उसने कहा-'संभूत! मुझे लगता है-तुम वैराग्य को नहीं पा सकते। तुम साम्राज्य का मोह नहीं छोड़ सकते पर तुम मेरी एक बात मानो। तुम अनार्य कर्म मत करो। यदि मुनि नहीं बन सकते तो गृहस्थ रहते हुए भी धर्म में स्थित रहो, सब जीवों के प्रति अनुकंपा करो जइ ता सि भोगे चइउं असत्तो, अज्जाई कम्माइं करेहि रायं। धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकंपी, तो होहिसि देवो इओ विउव्वी।। यह कहा जाता है-जैन धर्म में केवल अकर्म की बात है। निवृत्ति पर बल दिया गया है। इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण सूत्र मिलता है-जो विरक्त नहीं हो सकता, सारे भोगों को छोड़ नहीं सकता, वह आर्य-कर्म तो करे। बौद्ध साहित्य में आर्य-कर्म की बहुत अच्छी व्याख्या की गई है। आर्य-कर्म का अर्थ है-धर्म में स्थित रहना और सब जीवों के प्रति अनुकंपा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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