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________________ १७६ महावीर का पुनर्जन्म पहुंचा। चक्रवर्ती को नमस्कार कर निवेदन किया-'महाराज! मैंने श्लोक पूरा कर दिया है।' चक्रवर्ती ने कहा-सुनाओ अपना श्लोक। चरवाहे ने मुनि के द्वारा रचा गया पद्य बोल दिया आस्व दासी मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा। ___ एषा नौ षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः ।। जैसे ही इस श्लोक को सुना, चक्रवर्ती मूर्च्छित हो गया। वह सिंहासन से नीचे गिर पड़ा। यह देख राज्य कर्मचारी उस चरवाहे को डांटने लगे-'बेवकूफ हो तुम। कहीं ऐसा श्लोक बनाकर लाया जाता है। तुमने राजा को मूर्च्छित कर दिया।' यह कहते हुए राज्य कर्मचारियों ने चरवाहे की पिटाई शुरू कर दी। आधा राज्य मिलना तो कहीं रहा, मार और पड़ने लगी। उसने सिसकते हुए कहा- 'मुझे मत मारो! यह श्लोक मैंने नहीं बनाया है।' यह सुनते ही चक्रवर्ती सावधान हो गया। चक्रवर्ती ने पूछा-'किसने बनाया है यह श्लोक?' चरवाहे ने कहा-'राजन्! कुए के पास एक मुनि खड़े हैं। उन्होंने यह श्लोक बनाया था और उसको मैंने यहां सुनाया है।' चक्रवर्ती तत्काल खड़ा हो गया। उससे रहा नहीं गया। वह चरवाहे को चल पडा। आगे चरवाहा चल रहा है. उसके पीछे चक्रवर्ती चल रहा है और उसके पीछे हजारों लोगों की भीड़ है। वे नगर को पार कर बाहर आए। कए के पास पहुंच कर पेड के नीचे खड़े मुनि की ओर इशारा किया। चक्रवर्ती तेज कदमों से मुनि के समीप पहुंच गया। चक्रवर्ती ने देखा-मुनि ध्यानमुद्रा में लीन हैं। उन्हें देखते ही चक्रवर्ती के भीतर स्नेह जाग गया। उसे यह प्रतीति हो गई–यही है मेरा भाई। मैंने अपने भाई को पा लिया। चक्रवर्ती मुनि को संबोधित करते हुए बोला-'भइया! मैं आ गया हूं।' मुनिवर ने ध्यान पूरा किया। उसने भी चक्रवर्ती को पहचान लिया। बिछुड़े हुए, दो भाई मिल गए। इसे दो भाइयों का मिलन कहा जाए या दो जातिस्मरणों का मिलन कहा जाए। मुनि को भी पूर्वजन्म की स्मृति और चक्रवर्ती को भी पूर्वजन्म की स्मृति। दोनों देख रहे हैं अपने अतीत के सारे चित्र को। रील का ऐसा फीता खुल गया कि अनेक जन्मों के दृश्य साक्षात् होते चले गए। अतीत की गाथा चक्रवर्ती बोला-'भाई! इससे पहले जन्म में हम सौधर्म कल्प देवलोक में पद्मगुल्म विमान के देवता थे। उससे पहले हम मातंग थे, चांडाल पुत्र थे। उस समय हमारे में क्या-क्या नहीं बीता! कैसे हमें नगर से निकाला गया! कितने अच्छे गायक थे हम! इतने कष्टों के बाद भी हमने साथ नहीं छोड़ा। उसी भव में हम दोनों मुनि बन गए। इससे पूर्वजन्म में हम गंगा नदी के तीर पर हंस-युगल हुए। उससे पहले जन्म में हम दोनों कालिंजर पर्वत पर मृग बने और शिकारी के एक ही बाण से हम दोनों की मृत्यु हो गई। उससे पूर्वजन्म में हम दास थे। आज हमारे सामने पांच भव प्रत्यक्ष हैं-दास का भव, मृग का भव, मातंग पुत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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