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________________ अनुशासन के सूत्र शिष्य गुरु के पास दीक्षित हुआ। पहला ही दिन था। शिष्य चलने लगा। आचार्य ने टोका-कैसे चल रहे हो? देखकर चलो। शिष्य सकपका कर बैठ गया। आचार्य ने फिर टोका-सीधे बैठो, स्थान का प्रमार्जन कर बैठो। झुककर मत बैठो, टेढ़े मत बैठो। सोने का समय हुआ। शिष्य लेटने लगा। आचार्य ने कहा-ठीक से सोओ। ऐसे नहीं सोना है। कायोत्सर्ग की मुद्रा में लेटो। वामपार्श्व कायोत्सर्ग करो, दक्षिण-पार्श्व कायोत्सर्ग करो, उत्तान कायोत्सर्ग करो या अवम कायोत्सर्ग करो। ऐसे टेढ़े-मेढ़े मत सोओ। दूसरा दिन हुआ। शिष्य किसी से बात करने लगा। आचार्य ने कहा-धीरे बोलो, जोर से मत बोलो, निरवद्य वचन बोलो। भोजन का समय हुआ। शिष्य खाना खाने लगा। आचार्य ने कहा-ऐसे मत खाओ। जल्दी-जल्दी खा रहे हो, ठीक से खाओ, चबा-चबा कर खाओ। प्रत्येक कार्य में आचार्य के हस्तक्षेप से शिष्य का चित्त अशान्त हो उठा। उसने सोचा-मैं मुनि बना हूं मुक्ति के लिए, बन्धनों को तोड़ने के लिए, किन्तु साधुत्व में भी बन्धन है। यह सबसे बड़ा विस्मय है मुक्तये साधवो जाता, बन्धनच्छित्तये प्रभो। बंधनान्यपि साधुत्वे, यदि स्युर्विस्मयो महान् ।। शिष्य का चिन्तन आगे बढ़ा। उसने सोचा-आदमी की अपनी भी कोई स्वतंत्रता होती है। मेरी स्वतंत्रता है-मैं कैसे चलूं, कैसे बोलूं, कैसे खाऊं, कैसे सोऊं, इसमें दूसरे को क्या लेना देना है? उससे रहा नहीं गया। वह गुरु के पास पहुंचा। वंदना कर बोला-गुरुदेव! मैंने दीक्षा मुक्ति के लिए ली. है और आप मुझे प्रत्येक कार्य में बान्धते चले जा रहे हैं। आप चाहते हैं-मैं न सोऊं, न बोलूं और न खाऊं, मात्र मूर्ति की तरह बन जाऊं। इस प्रकार बनना मेरे लिए संभव नहीं है। क्या ये बंधन नहीं हैं? निषेध का प्रयोजन क्या है? गुरु ने कहा-वत्स! मैं नहीं कहता-तुम मत चलो, तुम मत सोओ, मत खाओ, मत पीओ, बात मत करो। पर जो भी कार्य करो, वह विधिवत् करो, विधान के अनुसार करो। विधि-विधान को मानना बहुत जरूरी है। आद्य शंकराचार्य ने लिखा __यावदस्मिन्नविद्योत्थं, जीवत्वं नापनीयते। तावद् विधिनिषेधानां शंकरोप्यस्ति किंकरः।। जब तक इस जीव में अविद्या से उत्पन्न होने वाला जीवत्व समाप्त नहीं होता तब तक विधि और निषेध का शंकर भी किंकर है, सेवक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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