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यज्ञ, तीर्थस्थल आदि का आध्यात्मिकीकरण
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हैं, सबको मिलाए, एक अवयवी बन जाएगा। मोटर का एक पहिया मोटर है
और मोटर नहीं भी है। अगर एक पहिए को मोटर मान कर उसे चलाएं, उस पर १०-२० आदमी बैठ जाएं तो फलित क्या होगा? अगर वह मोटर नहीं है, ऐसा मानें और पहिए को निकाल कर फिर मोटर चलाएं तो क्या होगा? क्या मोटर चलेगी?
सबकों एक साथ देखें और कभी-कभी जरूरत हो तो अलग-अलग देखें। अगर हाथ में दर्द है तो हाथ का व्यायाम करें, हाथ की मालिश करें। हाथ को भी अलग देखें, किन्तु शरीर से काटकर नहीं। महावीर का यह दृष्टिकोण हृदयंगम हो जाए तो वैचारिक आग्रह को अवकाश ही न मिले। यदि हम अनेकांत दृष्टि का उपयोग कर पाएं तो हमारी भाषा का प्रकार बदल जाएगा, बोलने की शैली बदल जाएगी, दूसरों के साथ व्यवहार करने की शैली बदल जाएगी। हमारा स्वर यह नहीं रहेगा
तुम आओ डग एक तो, हम आएं डग अट्ठ।
तुम हमसे करड़े रहो, तो हम हैं करड़े लट्ठ।। हमारे व्यवहार और वाणी में लचीलापन आ जाएगा। अनेकांत की सबसे बड़ी विशेषता है, सोच को लचीला बना देना। इस बात की आज बहुत अपेक्षा है, यह बहुत बड़ा काम है। आज एक करणीय कार्य है-जैन दर्शन के जितने ग्रन्थ पन्द्रहवीं शताब्दी में आचार्य सिद्धसेन से लेकर यशोविजयजी तक लिखे गए हैं, उनमें कहां दूसरे दर्शनों का खंडन किया गया है, उसे खोजा जाए, उस पर पुनर्विचार किया जाए, उसका पुनर्मूल्यांकन किया जाए। यह भी विमर्शनीय है कि जो खंडन किया गया, क्या वह आवश्यक था? अमुक नय की दृष्टि से विचार करते तो खंडन करना कोई जरूरी नहीं था। यह टिप्पणी की जा सकती है कि यह विचार एकान्तदृष्टि से, निरपेक्षदृष्टि से माना जाए तो मिथ्या है। अगर इसे सापेक्षता से स्वीकारा जाए तो बिलकुल सही है। खंडन के पुनर्वीक्षण में इतनी टिप्पणी ही पर्याप्त हो सकती है। महावीर का दृष्टिकोण
भगवान् महावीर ने यज्ञ के संदर्भ में, तीर्थस्थान के संदर्भ में जिस दृष्टि का प्रयोग किया, वह अनेकांत का निदर्शन है। भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य महावीर के पास आए। महावीर ने उन पर अपना विचार नहीं थोपा। महावीर उनसे पूछते-बोलो, पुरुषादानीय पार्श्व ने क्या कहा है? वे उन्हें उनके मंतव्य से ही अभिभूत कर देते। वैदिक विद्वान आए, इन्द्रिभूति गौतम आए। भगवान् ने कहा-तुम कहते हो कि आत्मा नहीं है, लेकिन तुम्हारे वेदों में ऐसा माना गया है। इसका जो निष्कर्ष निकलता है, वह यह है कि हमारा कहीं आग्रह न हो। जिस व्यक्ति में जितना राग, द्वेष प्रबल होगा, वह व्यक्ति उतना ही एकांतवादी होगा। राग, द्वेष और एकांतवादिता को कभी अलग नहीं किया जा सकता। वीतराग का अर्थ है अनेकांत की दिशा में प्रस्थान। जो व्यक्ति जितना राग-द्वेष कम करेगा, अपने आप उसका सम्यक् दर्शन जागेगा, अनेकांत दृष्टि प्रबल होगी।
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