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यज्ञ, तीर्थस्थल आदि का आध्यात्मिकीकरण
१६७ हैं, बोलने और सोचने के प्रकार हैं, वे सब नय हैं। नय का खंडन कैसे किया जा सकता है? आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि आचार्यों ने संग्रह और व्यवहार-इन दो दृष्टियों से सांख्य, वेदांत, वैशेषिक आदि दर्शनों का समाहार किया है। एक जैन आचार्य ने कितना मार्मिक लिखा है-जैसे समुद्र में सारी नदियां गिरती हैं वैसे ही सारे विचार अनेकांत के महासमुद्र में समाहित हो जाते हैं। नदियों में समुद्र नहीं है किन्तु समुद्र में सारी नदियां मिल जाती हैं। एकान्त नर्यों में अनेकान्त नहीं है किंतु अनेकांत में सारे नय समाहित हो जाते हैं।
कहा गया-हम बौद्ध दर्शन का खंडन कैसे करें, वह तो हमारा ऋजुसूत्र नय का अभिप्राय है। हम वेदान्त का खण्डन कैसे करें, वह संग्रह नय का मंतव्य
परम्परा : नया संदर्भ
यह समाहार और समन्वय का दृष्टिकोण सचमुच महावीर का दृष्टिकोण है। महावीर ने यज्ञों का खंडन नहीं किया, जातिवाद का खंडन नहीं किया, तीर्थस्थान का भी खंडन नहीं किया। महावीर ने कहा-'तुम जो मान रहे हो, उसे निरपेक्ष मत मानो, सापेक्ष मानो। तुम अपनी दृष्टि अहिंसा-सापेक्ष बना लो, तुम्हारा कार्य पवित्र बन जाएगा। हिंसा के स्थान पर अहिंसा की बात जोड़ दो।' महावीर ने अपने इस दृष्टिकोण से यज्ञ आदि का आध्यात्मिकीकरण कर दिया। महावीर ने प्रत्येक प्रचलित प्रथा को एक नया रूप दिया, नया आयाम दिया। जो व्यक्ति नया विकल्प देना नहीं जानता, वह कभी क्रांतिकारी नहीं हो सकता, समाज-सुधारक नहीं हो सकता। प्रत्येक रूढ़ि को नया रूप दिया जा सकता है। रूढ़ि एक परंपरा होती है। परंपरा खराब ही नहीं होती। उसका नया रूप हो जाए तो वह ग्राह्य भी बन सकती है। भर्तृहरि ने वैराग्य शतक में विवाह के सारे नेकचारों का नवीनीकरण कर दिया। विवाह के अवसर पर सास दामाद का नाक पकड़ती है। आचार्य भिक्षु ने इस प्रथा की आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत कर दी। उन्होंने कहा-'नाक पकडना खराब बात नहीं है। सास नाक पकडकर क है न जाने कितने जन्मों से तू काम-भोग और वासना के चक्र में फंसा हुआ है, संसार में भ्रमण करता रहा है। अभी भी तुझे शर्म और लज्जा नहीं आ रही है। तू फिर उसी संसार-चक्र में जा रहा है। तुझे शर्म आनी चाहिए।'
सहज प्रचलित परंपरा का एक नया अर्थ प्रस्तुत हो गया। मूल्यांकन की दृष्टि
आज हम लोग वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं। इस युग में भी दर्शन प्रतिष्ठित है, वह अप्रतिष्ठत नहीं है। आज दर्शन के नये-नये ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं। आज तक सारे दर्शनों का जो मूल्यांकन हुआ है, वह वेदांत के आधार पर हुआ है। दार्शनिक जगत में मूल्यांकन की परंपरा रही है। जैन दर्शन, वैशेषिक दर्शन इन सबके सिद्धान्त प्रस्तुत करने के बाद लेखक उनका मूल्यांकन करते हैं। जैन दर्शन की कौन-सी मान्यता सम्यक् है और कौन-सी सम्यक् नहीं, लेखक के इस मूल्यांकन की कसौटी का आधार प्रायः वेदांत रहा है। विद्वानों ने
मूल्यांकन किया वेदांत को मूल मानकर। यदि कोई विद्वान सारे दर्शनों का Jain Education International For Private & Personal Use Only
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