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________________ १२४ आयुर्बन्धक्षणो नास्ति, निश्चितं तेन संततम् । भाव्यमेवा ऽप्रमत्तेन, प्रतिक्षणं प्रतिक्षणम् ।। जब मनुष्य सोता है तब वह बहुत सारी व्यवस्थाएं करता है। वह सोने से पूर्व घर के सारे मुख्य दरवाजे बंद कर देता है, तिजोरी और गोदरेज की आलमारियां बंद कर देता है । घर की सुरक्षा के लिए, अपनी सुरक्षा के लिए वह और भी अनेक व्यवस्थाएं करता है। इन व्यवस्थाओं का उद्देश्य होता है— कहीं कोई चोर घुस न जाए, जन-धन का नुकसान न हो जाए। पदार्थ की सुरक्षा के लिए व्यक्ति बहुत जागरूकता बरतता है। आयुष्य बंध के साथ पूरे जीवन का सवाल जुड़ा हुआ है । यदि वह उसके प्रति जागरूक नहीं होता है तो ऊर्ध्वारोहण की आकांक्षा की पूर्ति संदिग्ध बनी रहती है। इस दर्शन को स्पष्ट करने के लिए ही महावीर ने कहा- समयं गोयम ! मा पमायए- गौतम! क्षण भर भी प्रमाद मत कर। न जाने कब क्या हो जाए, न जाने कब आयुष्य बंध जाए। अप्रमत्त जीवन जीने का यह बहुत महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक आधार बनता है । अप्रमत्तता के बिना उन्नयन संभव नहीं होता, ऊंचाई का स्पर्श सहज नहीं होता। जागरूकता जीवन विकास की अनिवार्य शर्त है पर साथ-साथ यह भी सचाई है - प्रत्येक व्यक्ति की अपनी दुर्बलताएं हैं, प्रमाद है । व्यक्ति की मानवीय दुर्बलताओं से हम अनजान नहीं हैं। प्रमाद को एक साथ बिलकुल छोड़ा नहीं जा सकता। गृहस्थ की भूमिका से परे मुनि की भूमिका पर भी प्रमाद बना रहता है। मुनि की दो भूमिकाएं हैं-प्रमत्त गुणस्थान और अप्रमत्त गुणस्थान । एक मुनि दिन में न जाने कितनी बार छठे गुणस्थान - प्रमत्त गुणस्थान में जीता है और न जाने कितनी बार सातवें गुणस्थान में जीता है। दिन में कुछ-कुछ क्षण ऐसे आते हैं, जब मुनि प्रमत्त गुणस्थान को अतिक्रांत कर अप्रमत्त गुणस्थान का स्पर्श करता है। मुनि के लिए कहा गया- वह छठे गुणस्थान - प्रमत्त गुणस्थान में कम रहे, सातवें गुणस्थान - अप्रमत्त गुणस्थान की प्राप्ति के लिए निरन्तर सचेष्ट रहे । सातवें गुणस्थान में पूर्ण अप्रमत्तता, निरन्तर जागरूकता की स्थिति बनती है । महावीर का पुनर्जन्म अप्रमत्तता की परम भूमिका जागरूकता विजय का महत्वपूर्ण सूत्र है । महावीर ने अप्रमतत्ता की जिस परम भूमिका का निर्देश किया है, उस तक पहुंचना बहुत कठिन है। उस भूमिका का नाम है - यथालंदक । उसमें अप्रमाद की अखंड ज्योति प्रज्वलित रहती है। इस भूमिका में न तपस्या की चौथी परिपाटी करनी होती है, न उपवास, आयंबिल करना होता है किन्तु प्रतिक्षण जागरूक रहना होता है । यथालंदक मुनि की जागरूकता को इन शब्दों में व्याख्यायित किया गया— 'एक व्यक्ति ने हाथ धोया, सारा पानी नीचे गिर गया, केवल हाथ की रेखाएं गीली हैं। हथेली की गीली रेखा सूखे, इतनी देर भी यदि प्रमाद आ जाए, जागरूकता नहीं रहे तो एक बेला प्रायश्चित्त स्वरूप करना होता है ।' कितनी कठोर साधना है! सामान्य व्यक्ति इस भूमिका की कल्पना भी नहीं कर सकता। एक गृहस्थ श्रावक पांचवें गुणस्थान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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