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________________ ११२ महावीर का पुनर्जन्म आकर्षण न हो? जिसकी विवेक चेतना जाग जाती है, उसके सामने निन्यानवें अरब रुपये आ जाएं, तो वे उसके लिए सिवाय मिट्टी के कुछ नहीं हैं। जब विवेक चेतना जागती है, मनुष्य का मन भौतिकता के पाश में आबद्ध नहीं होता। एक ओर है प्रियता का संसार तथा दूसरी ओर है विवेक का संसार। जब तक विवेक जागृत नहीं है तब तक गृहस्थ जीवन का आकर्षण कम नहीं होता। अविवेक की चेतना में व्यक्ति का घर के प्रति आकर्षण बना रहता है। उसे ऐसा लगता है-जो कुछ सुख है, वह संसार में ही है। जैसे ही विवेक जागता है, व्यक्ति को लगता है-संसार में कुछ भी नहीं है, गृहस्थ के भोगों का कोई मूल्य नहीं है। जब तक आदमी की एक प्रकार की चेतना होती है, उसे पदार्थ ही सब कुछ लगते हैं। जब चेतना का रूपान्तरण होता है, प्रियता की चेतना बदलती है, विवेक की चेतना जागती है तब सारे मूल्य निर्मूल्य बन जाते हैं। यह मूल्यों का संसार है। एक अवस्था में आदमी एक चीज को मूल्य देता है और दूसरी अवस्था में उसे निर्मूल्य बना देता है। मूल्य का मानदण्ड पूज्य कालूगणी रुग्ण अवस्था में थे। अनेक साधु बहुत दूर से धूल की पोटलियां बांध-बांध कर लाते। एक दिन कालूगणी ने कहा-हमारे लिए धूल का भी कितना मूल्य है? साधु कितने श्रम से दूर-दूर से धूल ला रहे हैं? मेवाड़ में धूल का मिलना कितना मुश्किल है। एकदम शुद्ध बालू, चांदी जैसी चमकती हुई रेत का मेवाड़ में जितना मूल्य है उतना थली प्रदेश में नहीं है। थली में रेतीले टिब्बे बहुत हैं और वहां ऐसी बालू बहुत ज्यादा सुलभ है। मेवाड़ में वह दुर्लभ है इसलिए मेवाड़ में दूर से रेत लाना भी मूल्यवान् कार्य बन गया। मूल्य देना या मूल्य न देना-दोनों सापेक्ष हैं। एक अवस्था में गृहवास, धन और पदार्थों का बहुत मूल्य है किन्तु जब चेतना बदल जाती है, विवेक जाग जाता है, ये सब बिलकुल फीके-फीके लगने लग जाते हैं। ये दोनों प्रकार की चेतनाएं, दोनों प्रकार की विचारधाराएं, दोनों प्रकार के चिंतन हमारे सामने रहे हैं। ब्राह्मण ने नमि राजर्षि से कहा-राजन! आप घोराश्रम-गृहस्थाश्रम को छोड़कर संन्यास आश्रम की इच्छा कर रहे हैं, यह उचित नहीं है। आप यहीं रहकर पौषध, अणुव्रत, तप आदि व्रतों का पालन करें। घोरासमं चइत्ताणं, अन्नं पत्थेसि आसमं। इहेव पोसहरओ, भवाहि मणुजाहिवा।। नमि राजर्षि बोले-तुम गृहस्थी की भूमिका को ही जानते हो किन्तु स्वाख्यात धर्म की भूमिका से तुम परिचित नहीं हो। मैं जिस महान् स्थिति में जा रहा हूं उसका मूल्य तुम नहीं जानते। मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं।। राजर्षि ने कहा-अविवेकी मनुष्य मास-मास की तपस्या के अनंतर कुश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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